Sunday, 25 October 2015

ब्रह्मचर्य

     ब्रह्मचर्य सभी अवस्थाओं में विद्यार्थी, गृहस्थी, साधु-संन्यासी, सभी के लिए अत्यंत आवश्यक है।

जब स्वामी विवेकानंद जी विदेश में थे, तब ब्रह्मचर्य की चर्चा छिड़ने पर उन्होंने कहाः "कुछ दिन पहले एक भारतीय युवक मुझसे मिलने आया था। वह करीब दो वर्ष से अमेरिका में ही रहता है। वह युवक संयम का पालन बड़ी दृढ़तापूर्वक करता है। एक बार वह बीमार हो गया तो उसने डॉक्टर को बताया। तुम जानते हो कि डॉक्टर ने उस युवक को क्या सलाह दी ? कहाः ʹब्रह्मचर्य प्रकृति के नियम के विरूद्ध है। अतः ब्रह्मचर्य का पालन करना स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।ʹ

उस युवक को बचपन से ही ब्रह्मचर्य-पालन के संस्कार मिले थे। डॉक्टर की ऐसी सलाह से वह उलझन में पड़ गया। उसने मुझे सारी बातें बतायीं। मैंने उसे समझायाः "तुम जिस देश के वासी हो वह भारत आज भी अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु के पद पर आसीन है। अपने देश के ऋषि मुनियों के उपदेश पर तुम्हें ज्यादा विश्वास है कि ब्रह्मचर्य को जरा भी न समझने वाले पाश्चात्य जगत के असंयमी डॉक्टर पर? ब्रह्मचर्य को प्रकृति के नियम विरूद्ध कहने वालों को ʹब्रह्मचर्यʹ शब्द के अर्थ का भी पता नहीं है। ब्रह्मचर्य के विषय में ऐसे गलत ख्याल रखने वालों से एक ही प्रश्न है कि आपमें और पशुओं में क्या अन्तर है ?"

सदाचारी एवं संयमी व्यक्ति ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। चाहे बड़ा वैज्ञानिक हो या दार्शनिक, विद्वान हो या बड़ा उपदेशक, सभी को संयम की जरूरत है। स्वस्थ रहना हो तब भी ब्रह्मचर्य की जरूरत है, सुखी रहना हो तब भी ब्रह्मचर्य की जरूरत है और सम्मानित रहना हो तब भी ब्रह्मचर्य की जरूरत है। हे भारत के युवक व युवतियों ! यदि जीवन में संयम, सदाचार को अपना लो तो तुम भी महान-से-महान कार्य करने में सफल हो सकते हो।

Saturday, 24 October 2015

मानवहित सर्वोपरि - महर्षि दधिची



  लोक कल्याण के लिये आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है।इनकी माता का नाम शान्ति तथा पिता का नाम अथर्वा ऋषि था।ये तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। अटूट शिवभक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।

 एक बार महर्षि दधीचि बड़ी ही कठोर तपस्या कर रहे थे। इनकी अपूर्व तपस्या के तेज से तीनों लोक आलोकित हो गये और इन्द्र का सिंहासन हिलने लगा। इन्द्र को लगा कि ये अपनी कठोर तपस्या के द्वारा इन्द्र पद छीनना चाहते हैं। इसलिये उन्होंने महर्षि की तपस्या को खण्डित करने के उद्देश्य से परम रूपवती अलम्बुषा अप्सरा के साथ कामदेव को भेजा। अलम्बुषा और कामदेव के अथक प्रयत्न के बाद भी महर्षि अविचल रहे और अन्त में विफल मनोरथ होकर दोनों इन्द्र के पास लौट गये। कामदेव और अप्सरा के निराश होकर लौटने के बाद इन्द्र ने महर्षि की हत्या करने का निश्चय किया और देवसेना को लेकर महर्षि दधीचि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर देवताओं ने शान्त और समाधिस्थ महर्षि पर अपने कठोर-अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करना शुरू कर दिया। देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तपस्या के अभेद्य दुर्ग को न भेद सके और महर्षि अविचल समाधिस्थ बैठे रहे। इन्द्र के अस्त्र-शस्त्र भी उनके सामने व्यर्थ हो गये। हारकर देवराज स्वर्ग लौट आये।

 एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, उसी समय देवगुरु बृहस्पति आये। अहंकारवश इन्द्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर अन्यत्र चले गये। देवताओं को विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाकर काम चलाना पड़ा, किन्तु विश्वरूप कभी-कभी देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे दिया करता था। इन्द्र ने उस पर कुपित होकर उसका सिर काट लिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था उन्होंने क्रोधित होकर इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगे।

 ब्रह्मा जी की सलाह से देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियाँ माँगने के लिये गये। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए कहा- ‘प्रभो! त्रैलोक्य की मंगल-कामना हेतु आप अपनी हड्डियाँ हमें दान दे दीजिये।’ महर्षि दधीचि ने कहा- ‘देवराज! यद्यपि अपना शरीर सबको प्रिय होता है, किन्तु लोकहित के लिये मैं तुम्हें अपना शरीर प्रदान करता हूँ।’ महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण हुआ और वृत्रासुर मारा गया। इस प्रकार एक महान परोपकारी ऋषि के अपूर्व त्याग से देवराज इन्द्र बच गये और तीनों लोक सुखी हो गये। अपने अपकारी शत्रु के भी हित के लिये सर्वस्व त्याग करने वाले महर्षि दधीचि-जैसा उदाहरण संसार में अन्यत्र मिलना कठिन है।
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कहानी बच्चा और पेड़ की


एक बार की बात है एक जंगल में सेब का एक बड़ा
पेड़ था । एक बच्चा रोज उस पेड़ पर खेलने आया
करता था । वह कभी पेड़ की डाली से लटकता कभी
फल तोड़ता कभी उछल कूद करता था, सेब का पेड़
भी उस बच्चे से काफ़ी खुश रहता था । कई साल इस
तरह बीत गये । अचानक एक दिन बच्चा कहीं चला
गया और फिर लौट के नहीं आया, पेड़ ने उसका
काफ़ी इंतज़ार किया पर वह नहीं आया । अब तो पेड़
उदास हो गया ।

काफ़ी साल बाद वह बच्चा फिर से पेड़ के पास आया
पर वह अब कुछ बड़ा हो गया था । पेड़ उसे देखकर
काफ़ी खुश हुआ और उसे अपने साथ खेलने के लिए
कहा ।

पर बच्चा उदास होते हुए बोला कि अब वह बड़ा हो
गया है अब वह उसके साथ नहीं खेल सकता । बच्चा
बोला की अब मुझे खिलोने से खेलना अच्छा लगता है
पर मेरे पास खिलोने खरीदने के लिए पैसे नहीं है । पेड़
बोला उदास ना हो तुम मेरे फल तोड़ लो और उन्हें बेच
कर खिलोने खरीद लो । बच्चा खुशी खुशी फल तोड़ के
ले गया लेकिन वह फिर बहुत दिनों तक वापस नहीं
आया| पेड़ बहुत दुखी हुआ ।

अचानक बहुत दिनों बाद बच्चा जो अब जवान हो गया
था वापस आया, पेड़ बहुत खुश हुआ और उसे अपने
साथ खेलने के लिए कहा पर लड़के ने कहा कि वह पेड़
के साथ नहीं खेल सकता अब मुझे कुछ पैसे चाहिए
क्यूंकी मुझे अपने बच्चों के लिए घर बनाना है ।
पेड़ बोला मेरी शाखाएँ बहुत मजबूत हैं तुम इन्हें काट
कर ले जाओ और अपना घर बना लो । अब लड़के ने
खुशी खुशी सारी शाखाएँ काट डालीं और लेकर चला
गया । वह फिर वापस नहीं आया ।

बहुत दिनों बात जब वह वापिस आया तो बूढ़ा हो चुका
था पेड़ बोला मेरे साथ खेलो पर वह बोला की अब में
बूढ़ा हो गया हूँ अब नहीं खेल सकता । पेड़ उदास होते
हुए बोला की अब मेरे पास ना फल हैं और ना ही लकड़ी
अब में तुम्हारी मदद भी नहीं कर सकता । बूढ़ा बोला की
अब उसे कोई सहायता नहीं चाहिए बस एक जगह चाहिए
जहाँ वह बाकी जिंदगी आराम से गुजर सके । पेड़ ने उसे
अपने जड़ मे पनाह दी और बूढ़ा हमेशा वहीं रहने लगा ।

मित्रों इसी पेड़ की तरह हमारे माता पिता भी होते हैं,
जब हम छोटे होते हैं तो उनके साथ खेलकर बड़े होते
हैं और बड़े होकर उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं और
तभी वापस आते हैं जब हमें कोई ज़रूरत होती है ।
धीरे धीरे ऐसे ही जीवन बीत जाता है । हमें पेड़ रूपी
माता पिता की सेवा करनी चाहिए ना की सिर्फ़ उनसे

फ़ायदा लेना चाहिए..