Monday, 22 August 2016

जनेऊ पहनने का लाभ क्या?






जनेऊ पहनने के लाभ पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था।

मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय  रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है।यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है।इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम- क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघपाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।

सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओंका निवास  दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं- उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है।

तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता।यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है|

लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सचक्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता|

आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहनकरना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार
या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेलेदो लोगों  अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है औरचंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।

अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है।

अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसकेनीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है। बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्र अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।






Thursday, 18 August 2016

कहानी रूप सिंह बाबा की









रूप सिंह बाबा ने अपने गुरु अंगद देव जी की बहुत सेवा की ।
20 साल सेवा करते हुए बीत गए। गुरु रूप सिंह जी पर प्रसन्न हुए और कहा मांगो जो माँगना है। रूप सिंह जी बोले गुरुदेव मुझे तो मांगने ही नहीं आता। गुरु के बहुत कहने पर रूप सिंह जी बोले मुझे एक दिन का वक़्त दो घरवाले से पूछ्के कल बताता हु। घर जाकर माँ से पुछा तो माँ बोली जमीन माँग ले।
मन नहीं माना।बीवी से पुछा तो बोली इतनी गरीबी है पैसे मांग लो। फिर भी मन नहीं माना।
छोटी बिटिया थी उनको उसने बोला पिताजी गुरु ने जब कहा है कि मांगो तो कोई छोटी मोटी चीज़ न मांग लेना। इतनी छोटी बेटी की बात सुन्न के रूप सिंह जी बोले कल तू ही साथ चल गुरु से तू ही मांग लेना ।
अगले दिन दोनो गुरु के पास गए। रूप सिंह जी बोले गुरुदेव मेरी बेटी आपसे मांगेगी मेरी जगह।
वो नन्ही बेटी बहुत समझदार थी। रूप सिंह जी इतने गरीब थे के घर के सारे लोग दिन में एक वक़्त का खाना ही खाते।इतनी तकलीफ होने के बावजूद भी उस नन्ही बेटी ने गुरु से कहा गुरुदेव मुझे कुछ नहीं चाहिए।आप के हम लोगो पे बहुत एहसान है। आपकी बड़ी रहमत है। बस मुझे एक ही बात चाहिए कि आज हम दिन में एक बार ही खाना खाते है ।कभी आगे एसा वक़्त आये के हमे चार पांच दिन में भी अगर एक बार खाए तब भी हमारे मुख से शुक्राना ही निकले।कभी शिकायत ना करे।
शुकर करने की दात दो।
इस बात से गुरु इतने प्रसन्न हुए के बोले जा बेटा अब तेरे घर के भंडार सदा भरे रहेंगे। तू क्या तेरे घर पे जो आएगा वोह भी खाली हाथ नहीं जाएगा।
तो यह है शुकर करने का फल।
सदा शुकर करते रहे ।
सुख में सिमरन ।
दुःख में अरदास।

हर वेले शुकराना ।

Saturday, 13 August 2016

कृतघ्नता का फल





महाभारत में एक कथा आती है । भीष्म पितामह युधिष्ठिर से बोले : ‘‘किसी निर्जन वन में एक जितेन्द्रिय महर्षि रहते थे । वे सिद्धि से सम्पन्न, सदा सत्त्वगुण में स्थित, सभी प्राणियों की बोली एवं मनोभाव को जाननेवाले थे । महर्षि के पास क्रूर स्वभाववाले सिंह, बाघ, चीते, भालू तथा हाथी आदि भी आते थे । वे हिंसक जानवर भी ऋषि के शिष्य की भाँति उनके पास बैठते थे । एक कुत्ता उन मुनि में ऐसा अनुरक्त था कि उनको छोड़कर कहीं नहीं जाता था ।

एक दिन एक चीता उस कुत्ते को खाने के लिए आया । कुत्ते ने महर्षि से कहा : ‘‘भगवन् ! यह चीता मुझे मार डालना चाहता है । आप ऐसा करें जिससे मुझे इस चीते से भय न हो ।’’

मुनि : ‘‘बेटा ! इस चीते से तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिए । लो, मैं तुम्हें अभी चीता ही बना देता हूँ ।’’ मुनि ने उसे चीता बना दिया । उसे देख दूसरे चीते का विरोधी भाव दूर हो गया ।

एक दिन एक भूखे बाघ ने उस चीते का पीछा किया । वह पुनः ऋषि की शरण में आया । इस बार महर्षि ने उसे बाघ बना दिया तो जंगली बाघ उसे मार न सका ।

एक दिन उस बाघ ने अपनी तरफ आते हुए एक मदोन्मत्त हाथी को देखा । वह भयभीत हो के फिर ऋषि की शरण में गया । मुनि ने उसे हाथी बना दिया तो जंगली हाथी भाग गया ।

कुछ दिन बाद वहाँ एक केसरी सिंह आया । उसे देख वह हाथी भय से पीड़ित हो ऋषि के पास गया । मुनि ने उसे सिंह बना दिया । उसे देखकर जंगली सिंह स्वयं ही डर गया ।

एक दिन वहाँ समस्त प्राणियों का हिंसक एक शरभ आया, जिसके आठ पैर और ऊपर की ओर नेत्र थे । शरभ को आते देख सिंह भय से व्याकुल हो मुनि की शरण में आया । मुनि ने उसे शरभ बना दिया । जंगली शरभ उससे भयभीत हो के तुरंत भाग गया ।

मुनि के पास शरभ सुख से रहने लगा । एक दिन उसने सोचा कि ‘महर्षि के केवल कह

देने मात्र से मैंने दुर्लभ शरभ का शरीर पा लिया । दूसरे भी बहुत-से मृग और पक्षी हैं जो अन्य भयानक जानवरों से भयभीत रहते हैं । ये मुनि उन्हें भी शरभ का शरीर प्रदान कर दें तो ? किसी दूसरे जीव पर ये प्रसन्न हों और उसे भी ऐसा ही बल दें उसके पहले मैं महर्षि का वध कर डालूँगा ।’


उस कृतघ्न शरभ का मनोभाव जान महाज्ञानी मुनीश्वर बोले : ‘‘यद्यपि तू नीच कुल में पैदा हुआ था तो भी मैंने स्नेहवश तेरा परित्याग नहीं किया । और अब हे पापी ! तू इस प्रकार मेरी ही हत्या करना चाहता है, अतः तू पुनः कुत्ता हो जा !’’

महर्षि के शाप देते ही वह मुनिजनद्रोही दुष्टात्मा नीच शरभ में से फिर कुत्ता बन गया । ऋषि ने हुंकार करके उस पापी को तपोवन से बाहर निकाल दिया ।’’

उस कुत्ते की तरह ही कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो महापुरुष उनको ऊपर उठाते हैं, जिनकी कृपा से उनके जीवन में सुख, शांति, समृद्धि आती है और जो उनके वास्तविक हितैषी होते हैं, उन्हींका बुरा सोचने और करने का जघन्य अपराध करते हैं ।

संत तो दयालु होते हैं, वे ऐसे पापियों के अनेक अपराध क्षमा कर देते हैं पर नीच लोग अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते । कृतघ्न, गुणचोर, निंदक अथवा वैरभाव रखनेवाला व्यक्ति अपने ही विनाश का कारण बन जाता है।


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Thursday, 11 August 2016

ARJUN KI GURUBHAKTI - अर्जुन की गुरुभक्ति







गुरुदेव द्रोणाचार्यकी विशेष कृपाका पात्र शिष्य अर्जुन
अर्जुनपर गुरुदेवजीकी विशेष कृपा है, यह बात द्रोणाचार्यजीके अन्य शिष्योंको सहन नहीं होती थी । इसलिए, वे सब अर्जुनकी उपेक्षा करते थे । एक समय, द्रोणाचार्यजी अर्जुनसहित अपने शिष्योंको लेकर स्नान करनेके लिए नदीपर गए और वटवृक्षके नीचे खडे होकर बोले, ‘अर्जुन, मै आश्रममें अपनी धोती भूलकर आया हूं । जाओ, तुम उसे लेकर आओ ।
गुर्वाज्ञाके कारण अर्जुन धोती लानेके लिए आश्रम गया, उस समय गुरु द्रोणाचार्यजीने कुछ शिष्योंसे कहा, ‘गदा एवं धनुष्यमें शक्ति होती है; परंतु मंत्रमें उससे अधिक शक्ति होती है । मंत्रजाप करनेवाले इसका महत्त्व एवं पद्धति समझ लें, तो मंत्रमें अधिक सामर्थ्य होता है, यह बात वे समझ जाएंगे । मैं अभिमंत्रित एक ही बाणसे इस वटवृक्षके सब पत्तियोंको छेद सकता हूं । यह कहकर, द्रोणाचार्यजीने भूमिपर एक मंत्र लिखा एवं उसी मंत्रसे अभिमंत्रित एक बाण छोडा । बाणने वृक्षके सभी पत्तोंको छेद दिया । यह देखकर, सब शिष्य आश्चर्यमें पड गए ।
पश्चात गुरु द्रोणाचार्यजी सब शिष्योंके साथ स्नान करने गए । उसी समय अर्जुन धोती लेकर आया । उसकी दृष्टि वृक्षकी पत्तियोंपर पडी । वह सोचने लगा । इस वटवृक्षकी पत्तियोंपर पहले तो छेद नहींr थे । मैं जब सेवा करने गया था, उस समय गुरुदेवजीने शिष्योंको एक रहस्य बताया था । रहस्य बताया था, तो उसके कुछ सूत्र होंगे, प्रारंभ होगा, इसके चिह्न भी होंगे । अर्जुनने इधर-उधर देखा, तो उसे भूमिपर लिखा हुआ मंत्र दिखाई दिए । वृक्षच्छेदनके सामर्थ्यसे युक्त यह मंत्र अद्भुत है, यह बात उसके मनमें समा गई । उसने यह मंत्र पढना आरंभ किया । जब उसके मनमें दृढ विश्वास उत्पन्न हो गया कि यह मंत्र निश्चित सफल होगा, तब उसने धनुष्यपर बाण चढाया और मंत्रका उच्चारण कर छोड दिया । इससे वटवृक्षकी पत्तियोंपर, पहले बने छेदके समीप दूसरा छेद बन गया । यह देखकर अर्जुनको अत्यंत आनंद हुआ । गुरुदेवजीने अन्य शिष्योंको जो विद्या सिखाई, वह मैंने भी सीख ली, ऐसा विचार कर, वह गुरुदेवजीको धोती देनेके लिए नदीकी ओर चल पडा ।
स्नानसे लौटनेके पश्चात जब द्रोणाचार्यजीने वटवृक्षकी पत्तियोंपर दूसरा छेद देखा, तो उन्होंने अपने साथके सभी शिष्योंसे प्रश्न किया - द्रोणाचार्य : स्नानसे पहले वटवृक्षकी सभी पत्तियोंपर एक छेद था । अब दूसरा छेद आपमेंसे किसने किया ? सब शिष्य : हमने नहीं किया । द्रोणाचार्य (अर्जुनकी ओर देखकर) : यह कार्य तुमने किया है क्या ? (अर्जुन कुछ डरा; परंतु झूठ कैसे कहूं; इसलिए बोला) अर्जुन : मैंने आपकी आज्ञाके बिना आपके मंत्रका प्रयोग किया । क्योंकि, मुझे लगा कि आपने इन सबको यह विद्या सिखा दी है, तो आपसे इस विषयमें पूछकर आपका समय न गंवाकर अपनेआप सीख लूं । गुरुदेवजी, मुझसे चूक हुई हो, तो क्षमा कीजिएगा ।
द्रोणाचार्य : नहीं अर्जुन, तुममें जिज्ञासा, संयम एवं सीखनेकी लगन है । उसी प्रकार, मंत्रपर तुम्हारा विश्वास है । मंत्रशक्तिका प्रभाव देखकर सब केवल चकित होकर स्नान करने चले गए । उनमेंसे एकने भी दूसरा छेद करनेका विचार भी नहीं किया । तुम धैर्य दिखाकर एवं प्रयत्न कर उत्तीर्ण हो गए । तू मेरा सर्वोत्तम शिष्य है । अर्जुन, तुमसे श्रेष्ठ धनुर्धर होना असंभव है । शिष्य इतना जिज्ञासू हो कि गुरुका अंतःकरण अभिमानसे भर जाए !




----- मासिक ऋषि प्रसाद, मई २००३





Thursday, 4 August 2016

EKALAVYA KI GURU BHAKTI - एकलव्य की गुरुभक्ति








आचार्य द्रोण राजकुमारों को धनुर्विद्या की विधिवत शिक्षा प्रदान करने लगे। उन राजकुमारों में अर्जुन के अत्यन्त प्रतिभावान तथा गुरुभक्त होने के कारण वे द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर भी विशेष अनुराग था इसलिये धनुर्विद्या में वे भी सभी राजकुमारों में अग्रणी थे, किन्तु अर्जुन अश्वत्थामा से भी अधिक प्रतिभावान थे। एक रात्रि को गुरु के आश्रम में जब सभी शिष्य भोजन कर रहे थे तभी अकस्मात् हवा के झौंके से दीपक बुझ गया। अर्जुन ने देखा अन्धकार हो जाने पर भी भोजन के कौर को हाथ मुँह तक ले जाता है। इस घटना से उन्हें यह समझ में आया कि निशाना लगाने के लिये प्रकाश से अधिक अभ्यास की आवश्यकता है और वे रात्रि के अन्धकार में निशाना लगाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया। गुरु द्रोण उनके इस प्रकार के अभ्यास से अत्यन्त प्रसन्न हुये। उन्होंने अर्जुन को धनुर्विद्या के साथ ही साथ गदा, तोमर, तलवार आदि शस्त्रों के प्रयोग में निपुण कर दिया।
उन्हीं दिनों हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र एकलव्य भी धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निम्न वर्ण का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।
एक दिन सारे राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो कर एकलव्य ने उस कुत्ते अपना बाण चला-चला कर उसके मुँह को बाणों से से भर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।
कुत्ते के लौटने पर जब अर्जुन ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मुँह में जिस कौशल से बाण चलाये गये हैं उससे तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य एकलव्य के पास पहुँचे और पूछे, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने चलाये है?" एकलव्य के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया, "तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?" एकलव्य ने उत्तर दिया, "गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार कर के धनुर्विद्या सीखी है।" इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य की उनकी मूर्ति के समक्ष ले जा कर खड़ा कर दिया।
द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। वे एकलव्य से बोले, "यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा देनी होगी।" एकलव्य बोला, "गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।" इस पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया। इस प्रकार एकलव्य अपने हाथ से धनुष चलाने में असमर्थ हो गया तो अपने पैरों से धनुष चलाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।