Wednesday, 25 January 2017

माया क्या होती है???








माया क्या होती है???.......

एक बार नारद ने कृष्ण से पूछा की “माया” क्या होती है आखिर इस “माया” का संसार में क्या अर्थ है, तो कृष्णा बोले ” हे नारद इसे आपको समझना नहीं बल्कि महसूस करना चाहिए, आइये हम अपने रथ पर सवार हो कर आगे जंगल का भ्रमड करने के लिए चलते है”

घने जंगल में पहुंचने के बाद एक स्थान पर कृष्ण रथ को रोकते है और नारद से कहते है ” हे नारद मुझे प्यास लग रही है, आप भी प्यासे प्रतीत हो रहे है, मुझे पेड़ों के उस पर नदी के बहने की आवाज़ आ रही है, पानी की कल कल से मेरी प्यास बढती जा रही है, लेकिन में अब इतना थक चूका हु की में चल कर नदी से पानी नहीं ला सकता. आप कृपया ऐसा करे की आप भी अपनी प्यास को नदी के पास जाकर शांत करे और वापस आते समय थोड़ा जल मेरे लिए भी लेते आये, लेकिन पानी पी लेने से पहले स्नान अवश्य कर लेना ”

नारद ने नदी की और प्रस्थान किया पर जितना नदी का जितना पास होने का अनुमान कृष्ण ने लगाया था वो नदी काफी दूर थी और वहा तक नारद पहुंचते पहुंचते स्नान करने की बात भूल गए, और जैसे ही उन्होंने नदी का पानी पिया वैसे ही वो एक अति सुन्दर स्त्री के रूप में परिवर्तित हो गए और वो भूल गए की वो कभी एक पुरुष थे.

तभी वहाँ से गुजरने वाले किसी राहगीर पुरुष ने नारी रूप नारद को देखा तो सुंदरता पर मोहित हो गया और नारद से विवाह करने की जिद करने लगा. नारद उसकी खुशामद से इतने खुश हुए की उन्होंने विवाह करने की स्वीकृति दे डाली और वैवाहिक जीवन व्यतीत करने लगे और उन दोनों ने यहाँ साठ संतानो को जन्म दिया
लेकिन तभी वहाँ पर महामारी फ़ैल गयी जिसमे नारद के सारे पुत्र अवं पति म्रत्यु को प्राप्त हो गए. नारद को इस घटना से बहुत दुःख हुआ और वो अपना जीवन समाप्त करने की सोचने लगे, लेकिन ज्यादा कुछ सोच पाते उन्हें बहुत तेज़ी सी भूख लगने लगी, और वो जीवन समाप्त करने की बात भूलकर, भूख को समाप्त करने की सोचने लगे.
नारद रुपी स्त्री ने ऊपर देखा तो उनको पास के वृक्ष पर पके हुए आम दिखाई दिए उन्होंने उन आम तक पहुंचने का बहुत प्रयास किया पर वो काफी ऊँचे लगे हुए थे. तो उन्होंने अपने पति एवं पुत्रों की लाशो को घसीट कर सीडिया बना ली और उन पर चढ़ कर आम को तोड़ लिए और जैसे ही खाने चले वैसे ही वहाँ पर एक ब्राह्मण देव प्रकट हुए और बोले की ” हे देवी इन आमो को खाने से पहले स्नान कर लो क्युकी आप मृत देहो को छूने के कारन दूषित हो गयी है,”

नारद स्नान करने के लिए नदी में घुसे पर एक हाथ में उन्होंने आम को पकड़ रख था. और उस हाथ को पानी के ऊपर ही रखा . क्युकी उन्हें डर था की पानी का तेज़ बहाव कही आम को न बहा ले जाये. लेकिन जब वो पानी के बाहर आये तो एक बार फिर से वो पुरुष के रूप में परिवर्तित हो चुके थे. लेकिन जो हाथ उन्होंने पानी के ऊपर रखा हुआ था उसमे अभी भी चूड़िया और आम था जिसे उन्होंने स्त्री होने के समय पहन और पकड़ रख था.

और अचानक ही उन्हें वो सब याद आ गया जो स्त्री रहते हुए उनके साथ घटित हुआ था. और जो ब्राह्मण देव प्रकट हुए थे वो वास्तव में श्री कृष्ण थे. जिन्होंने नारद को माया का अर्थ समझाने के लिए एक माया रची थी.
अब श्री कृष्ण ने नारद से पूछा की ” हे नारद आपने माया का एक रूप महसूस किया, आपको क्या समझ आया ?”
नारद बोले कैसे मेने औरत बनकर एक पुरुष को अपनी और आकर्षित करने का आनंद उठाया, कैसे मेने वैवाहिक जीवन का आनंद लिया, कैसे मेने संतान की चाहत का आनंद लिया, और कैसे मेने अपने पति और संतान की म्रत्यु का दुःख झेला, और उसी दुःख को भूलकर कैसे में अपनी भूख को शांत करने की चेष्टा करने लगा . यही माया है जो इच्छा की संतुष्टि के लिए मति भ्रम कर देता है, सब कुछ भूल जाने को विवश कर देती है सिवाय आत्म-तुष्टि के ”

नारद को अब सब कुछ मिल चूका था. उन्होंने अपना नारी वाला हाथ जिसमे आम पकड़ा हुआ था, पानी में डुबो दिया तो फिर से पुरुष के हाथ जैसा हो गया और वो आम एक तम्बूरे में परिवर्तित हो गया. जिसे नारद हमेशा हमेशा के लिए साथ रखने लगे.

यह प्रसंग शिक्षा के महत्त्व से बहुत महत्वपूर्ण है क्युकी यहाँ आपको दो बातें जानने को मिलेगी, पहला की माया क्या है और दूसरा की नारद के पास तम्बूरा कैसे आया.


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Friday, 20 January 2017

सत्यकाम की कहानी






सत्यकाम की कहानी



जाग्रत- तुरीयातीत ब्रह्मज्ञान 




    एक बार सत्यकाम ने अपनी माता जाबाला से कहा-'माता! मैं ब्रह्मचारी बनकर गुरुकुल में रहना चाहता हूं। मुझे बतायें कि मेरा गोत्र क्या है?'
      माता ने उत्तर दिया-'मैं युवावस्था में विभिन्न घरों में सेविका का कार्य करती थी। वहां किसके संसर्ग से तुम्हारा जन्म हुआ, मैं नहीं जानती, परन्तु मेरा नाम जाबाला है और तुम्हारा नाम सत्यकाम है। अत: तू सत्यकाम जाबाला के नाम से जाना जायेगा।'
     सत्यकाम ने हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर कहा-'हे भगवन! मैं आपके पास ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।'
     गौतम ने जब उससे उसका गोत्र पूछा, तो उसने अपने जन्म की साफ-साफ कथा बता दी। गौतम उसके सत्य से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया और उसे चार सौ गौंए देकर चराने के कार्य पर लगा दिया। साथ ही यह भी कहा कि जब एक हज़ार गौएं हो जायें, तब वह आश्रम में लौटे।
     सत्यकाम वर्षों तक उन गौओं के साथ वन में भ्रमण करता रहा। जब एक हज़ार गौएं हो गयीं, तब एक वृषभ ने उससे कहा-'सत्यकाम! तुमने इतनी गौ-सेवा की है, अत: तुम ब्रह्म के चार पदों को जानने योग्य हो गये हो। देखो, यह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण व उत्तर दिशा 'प्रकाशमान ब्रह्म' की चार कलाएं हैं। वह 'प्रकाशवान ब्रह्म' इन चारों कलाओं में एक पाद है। इस प्रकार जानने वाला साधक ब्रह्म के प्रकाशवान स्वरूप की उपासना करता है। अब ब्रह्म के दूसरे पाद के बारे में तुम्हें अग्निदेव बतायेंगे।'
     सत्यकाम गौएं लेकर गुरुदेव के आश्रम की ओर चल दिया। मार्ग में उसने अग्नि प्रज्वलित की। तब अग्नि ने कहा-'सत्यकाम! अनन्त ब्रह्म की- पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक और समुद्र- चार कलाएं हैं। हे सौम्य! ब्रह्म का दूसरा पाद 'अनन्त ब्रह्म' है। अब ब्रह्म के तीसरे पाद के विषय में तुम्हें हंस बतायेगा।'
    दूसरे दिन सत्यकाम गौओं को लेकर आचार्यकुल की ओर चल पड़ा। सांयकाल वह रूका और अग्नि प्रज्वलित की, तो हंस उड़कर वहां आया और बोला-'हे सत्यकाम! अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा और विद्युत, ब्रह्म की ये चार कलाएं हैं। ब्रह्म का तीसरा पाद यह 'ज्योतिष्मान' है। जो ज्योतिष्मान संज्ञक चतुष्कल पाद की उपासना करता है, वह इसी लोक में यश और कीर्ति को प्राप्त करता है। अब चौथे पद के बारे में तुम्हें जल-पक्षी बतायेगा।'
    अगले दिन वह आचार्यकुल की ओर आगे बढ़ा, तो सन्ध्या समय जल-पक्षी उसके पास आकर बोला-'सत्यकाम! प्राण, चक्षु, कान और मन, ब्रह्म की चार कलाएं हैं। ब्रह्म का चतुष्काल पाद यह आयतनवान (आश्रयमयुक्त) संज्ञक हैं इस आयतनवान संज्ञक की उपासना करने वाला विद्वान ब्रह्म के इसी रूप को प्राप्त कर लेता है।'
    जब सत्यकाम आचार्यकुल पहुंचा, तो आचार्य गौतम ने उससे कहा-'हे सौम्य! तुम ब्रह्मवेत्ता के रूप में दीप्तिमान हो रहे हो।
    इस प्रकार सत्यकाम को गुरूआज्ञा पालन करते करते ब्रह्मज्ञान हो गया।





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Tuesday, 10 January 2017

गुरु शिष्य प्रेम - श्री रामकृष्ण देव और स्वामी विवेकानंद






जब श्री रामकृष्ण परमहंस को केंसर हुआ था,तब उनको खासी बहूत आती थी।और वो कुछ खाना भी नही खा सकते थे।उस समय श्री विवेकानंद अपने गुरु की ये हालात से बहूत चिंतित थे।
एक दिन की बात है.....
ठाकुर:"नरेंद्र,तुजे वो दिन याद है,जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था ? तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। परंतु अपनी माँ से जूठ कह देता था की तूने अपने मित्र के घर खा लिया है,ताकी तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दे। है न ?"
नरेन्द्र ने रोते-रोते हां में सर हिला दिया।
ठाकुर फिर बोले,"यहां मेरे पास मंदिर आता,तो तेरे चहरे पे ख़ुशी का मख़ौटा पहन लेता।पर में भी तो कम नही।झट जान जाता की तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चोकड़ी मचा रहे है की तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है।और फिर तुजे अपने हाथो से लड्डू,पेड़े,मख्खन-मिश्री खिलाता था। है ना?"
नरेन्द्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई।
अब ठाकुर फिर मुश्कुराये और प्रश्न पूछा-"कैसे जान लेता था में यह बात? कभी सोचा है तूने? नरेन्द्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।
ठाकुर:"बता न,में तेरी आंतरिक स्थिति को कैसे जान लेता था ?"
नरेन्द्र-"क्योंकि आप अंतर्यामी माँ है,ठाकुर।"
ठाकुर:"अंतर्यामी,अंतर्यामी किसे कहते है?"
नरेन्द्र-"जो सब के अंदर की जाने"
ठाकुर:"कोई अंदर की कब जान सकता है ?"
नरेन्द्र-"जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।"
ठाकुर:"याने में तेरे अंदर भी बैठा हूँ।हूँ ?"
नरेन्द्र-"जी बिल्कुल। आप मेरे ह्रदय में समाये हुए है।"
ठाकुर:"तेरे भीतर में समाकर में हर बात जान लेता हूँ। हर दुःख दर्द पहचान लेता हु।तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ तो क्या तेरी तृप्ति मुज तक नही पहुचती होगी ?"
नरेन्द्र-"तृप्ति ?"
ठाकुर:"हा तृप्ति!जब तू भोजन खाता है और तुजे तृप्ति होती है,क्या वो मुझे तृप्त नही करती होगी ? अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है,अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यो के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। में एक नहीं हजारो मुखो से खाता हूँ। तेरे,लाटू के,काली के,गिरीश के,सबके। याद रखना,गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हे पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कही है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही,तब भी जिऊंगा,तेरे जरिए जिऊंगा। में तुझमे रहूँगा,तू मुझमे।"
दोस्तों आज नेट पर देखते-देखते यह बात पर मेरा ध्यान गया। मुझे यह संवाद बहुत ही भावुक कर गया। सोचा,आप सब भी गुरु-शिष्य का यह संवाद से लाभान्वित हो........गुरु अपने शिष्य के प्रति कितने भावुक कितने दयावान होते है।अपने शिष्य की,हर उल्जन को वह भली भांति जानते है।
शिष्य इस सब बातो से बे खबर होता है..वो अपनी उल्जने गुरु के आगे गाते रहता है.....
गुरु से कोई बात छिप सकती है क्या ? गुरु आखिर भगवान् का स्वरूप ही तो हैं |