प्राचीन काल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म
मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद-
शास्त्रादि का अध्ययन करते थे। एक दिन गुरु ने
अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने
का विचार किया। सत्शिष्यों में गुरु के
प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है कि उस
श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-
कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है।
वेदधर्म मुनि ने अपने शिष्यों को एकत्र करके
कहाः " हे शिष्यों ! पूर्वजन्म में मैंने कुछ
पापकर्म किये हैं। उनमें से कुछ तो जप-तप,
अनुष्ठान करके मैंने काट लिये,
अभी थोड़ा प्रारब्ध बाकी है। उसका फल
इसी जन्म में भोग लेना जरूरी है। उस कर्म
का फल भोगने के लिए मुझे भयानक बीमारी आ
घेरेगी, इसलिए मैं काशी जाकर रहूँगा। वहाँ मुझे
कोढ़ निकलेगा, अँधा हो जाऊँगा। उस समय मेरे
साथ काशी आकर मेरी सेवा कौन करेगा ? है कोई
हरि का लाल, जो मेरे साथ रहने के लिए तैयार
हो ?"
वेदधर्म मुनि ने परीक्षा ली। शिष्य पहले
तो कहा करते थेः "गुरुदेव ! आपके चरणों में
हमारा जीवन न्योछावर हो जाये मेरे प्रभु !" अब
सब चुप हो गये। गुरु का जयघोष होता है, माल-
मिठाइयाँ आती हैं, फूल-फल के ढेर लगते हैं तब
बहुत शिष्य होते हैं लेकिन आपत्तिकाल में उनमें
से कितने टिकते हैं !
वेदधर्म मुनि के शिष्यों में संदीपक नाम
का शिष्य खूब गुरु-सेवापरायण, गुरुभक्त एवं
कुशाग्र बुद्धिवाला था।
उसने कहाः "गुरुदेव ! यह दास आपकी सेवा में
रहेगा।"
गुरुदेवः "इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए
रहना होगा।"
संदीपकः "इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन
ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन
की सार्थकता है।"
वेदधर्म मुनि एवं संदीपक काशी नगर में
मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे। संदीपक
सेवा में लग गया। प्रातः काल में गुरु
की आवश्यकता के अनुसार दातुन-पानी,
स्नान-पूजन, वस्त्र-परिधान
इत्यादि की तैयारी पहले से ही करके रखता।
समय होते ही भिक्षा माँगकर लाता और गुरुदेव
को भोजन कराता। कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर
में कोढ़ निकला और संदीपक
की अग्निपरीक्षा शुरु हो गयी। गुरु कुछ समय
बाद अंधे हो गये। शरीर कुरूप और स्वभाव
चिड़चिड़ा हो गया। संदीपक के मन में लेशमात्र
भी क्षोभ नहीं हुआ। वह दिन-रात
गुरुजी की सेवा में तत्पर रहने लगा। वह कोढ़ के
घावों को धोता, साफ करता, दवाई लगाता, गुरु
को नहलाता, कपड़े धोता, आँगन बुहारता,
भिक्षा माँगकर लाता और गुरुजी को भोजन
कराता।
गुरुजी को मिजाज और भी क्रोधी एवं
चिड़चिड़ा हो गया। वे गाली देते, डाँटते,
तमाचा मार देते, डंडे से मारपीट करते और विविध
प्रकार से परीक्षा लेते। संदीपक खूब शांति से,
धैर्य से यह सब सहते हुए दिन प्रतिदिन
ज्यादा तत्परता से गुरु की सेवा में मग्न रहने
लगा। धनभागी संदीपक के हृदय में गुरु के
प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़
होता गया।
संदीपक की ऐसी अनन्य गुरुनिष्ठा देखकर
काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ
उसके समक्ष प्रकट हो गये और
बोलेः "तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम
प्रसन्न हैं। जो गुरु की सेवा करता है वह
मानो मेरी ही सेवा करता है। जो गुरु को संतुष्ट
करता है वह मुझे ही संतुष्ट करता है। इसलिए
बेटा ! कुछ वरदान माँग ले।" संदीपक ने अपने गुरु
की आज्ञा के बिना कुछ भी माँगने से मना कर
दिया। शिवजी ने फिर से आग्रह
किया तो संदीपक गुरु से आज्ञा लेने गया और
बोलाः "शिवजी वरदान देना चाहते है। आप
आज्ञा दें तो मैं वरदान माँग लूँ कि आपका रोग
एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाये।"
गुरु ने संदीपक को खूब डाँटते हुए
कहाः "सेवा करते-करते थका है इसलिए वरदान
माँगता है कि मैं अच्छा हो जाऊँ और सेवा से
तेरी जान छूटे ! अरे मूर्ख ! जरा तो सोच
कि मेरा कर्म कभी न कभी तो मुझे
भोगना ही पड़ेगा।"
इस जगह पर कोई आधुनिक शिष्य होता तो गुरु
को आखिरी नमस्कार करके चल देता। संदीपक
वापस शिवजी के पास गया और वरदान के लिए
मना कर दिया। शिवजी आश्चर्यचकित
हो कि कैसा निष्ठावान शिष्य है ! शिवजी गये
विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से
सारा वृत्तान्त कहा। भगवान विष्णु भी संतुष्ट
हो संदीपक के पास वरदान देने के लिए प्रकटे।
गुरुभक्त संदीपक ने कहाः "प्रभु ! मुझे कुछ
नहीं चाहिए।" भगवान ने फिर से आग्रह
किया तो संदीपक ने कहाः "आप मुझे
यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल
श्रद्धा बनी रहे। गुरुदेव की सेवा में निरंतर
प्रीति रहे, गुरुचरणों में दिन-प्रतिदिन भक्ति दृढ़
होती रहे। इसके अलावा मुझे और कुछ
नहीं चाहिए।" ऐसा सुनकर भगवान विष्णु ने
संदीपक को गले लगा लिया।
जब तक गुरू का हृदय शिष्य पर संतुष्ट
नहीं होता, तब तक शिष्य में ज्ञान प्रकट
नहीं होता। उसके हृदय में गुरु का ज्ञानोपदेश
पचता नहीं है। गुरु का संतोष ही शिष्य की परम
उपासना है, परम साधना है। गुरु को जो संतुष्य
करता है, प्रसन्न करता है उस पर सब संतुष्ट
हो जाते हैं। गुरुद्रोही पर विश्वात्मा हरि रूष्ट होते
हैं। आज संदीपक जैसे
सत्शिष्यों की गाथा का वर्णन सत्शास्त्र कर
रहे हैं। धन्य हैं ऐसे सत्शिष्य !
संदीपक ने जाकर देखा तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ
बैठे थे। न कोढ़, न कोई अंधापन, न अस्वस्थता !
शिवस्वरूप सदगुरु श्री वेदधर्म ने संदीपक
को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से
पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया। वे
बोलेः "वत्स ! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा !
जो इस प्रसंग को पढ़ेंगे, सुनेंगे अथवा सुनायेंगे,
वे महाभाग मोक्ष-पथ में अडिग हो जायेंगे। पुत्र
संदीपक ! तुम धन्य हो ! तुम सच्चिदानन्दस्वरूप
हो।"
गुरु के संतोष से संदीपक गुरुतत्त्व में जग गया,
गुरुस्वरूप हो गया।
अपनी श्रद्धा को कभी भी,
कैसी भी परिस्थिति में गुरु पर से तनिक भी कम
नहीं करना चाहिए। गुरु परीक्षा लेने के लिए
कैसी भी लीला कर सकते हैं। निजामुद्दीन
औलिया ने भी अपने चेलों की परीक्षा ली थी।
खास-खास 24 चेलों में से भी 2-2 करके फिसलते
गये। आखिरी ऊँचाई तक अमीर खुसरो ही डटे रहे।