Saturday, 11 May 2024

सूरदास


सूरदास



        सूरदासजी जन्मांध थे उनके कोई गुरु भी नहीं थे, फिर भी कृष्ण भक्ति रस की ऐसी वर्षा, जो 'मैं' को भिगो दे.. उन्हें कैसे मिली, जब भी कभी वो किसी गड्ढे में गिरते या नदी खाई में या झरने में गिराने वाले रहते तो, उन्हें भगवन स्वयं आके बचाते थे..!!


सूरदास जी के जीवन परिचय

            सूरदास, भारतीय साहित्य के प्रमुख संत-कवि थे जिनकी रचनाएं भक्ति, प्रेम, और आध्यात्मिकता के माध्यम से जनता के बीच लोकप्रिय थीं। सूरदास का जन्म 1478 ईसा पूर्व में वाराणसी के पास सिथली नामक गाँव में हुआ था। उनका असली नाम सुदास था, लेकिन उन्हें 'सूरदास' के नाम से अधिक पहचाना जाता है। सूरदास की रचनाओं में गोपीयों के प्रेम, राधा-कृष्ण का लीलाचरित्र, और भक्ति की उच्चता का वर्णन है।

सूरदास के दोहे उनकी आध्यात्मिक भावना और भक्ति का प्रतिक हैं। उनके दोहे भक्ति-मार्ग के आधारशिला माने जाते हैं और उनमें दिव्यता की अनुभूति का संवेदनशीलता से विवरण है।

सूरदास के दोहे में एक सामाजिक संदेश भी छिपा होता है। उन्होंने भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, और सामाजिक असमानता के खिलाफ विचार किए। उनके दोहे सामान्य जीवन के मूल्यों की बड़ी मात्रा में समर्थन करते हैं और जीवन को सरल, साफ, और निष्कपट बनाने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।

सूरदास के दोहे अपने अन्य ग्रंथों के साथ भारतीय साहित्य का अमूल्य अंग हैं। उनकी कविताएं और दोहे आज भी हमें आध्यात्मिक उद्धारण और जीवन में सही मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। उनकी भावनाओं की गहराई, उनके भक्तिभाव, और उनकी कल्पनाशीलता का विस्तार हमें एक अद्वितीय साहित्यिक अनुभव प्रदान करता है।


उद्धव बने सूरदास

सूरदास जी के ज्ञान और भक्ति से पूरी दुनिया चकित थी की सूरदासजी कृष्ण की ऐसी छवि कैसे देख पाते और उन्हें ऐसा ज्ञान कैसे मिल गया..!!

इसका जवाब भी भागवत में है, द्वापर युग में जब कृष्ण वृन्दावन छोड़ मथुरा चले गए थे, तब उन के विरह में गोपिया बेसुध रहती और सब कुछ भूल कर विलाप करती थी.. जब कृष्ण मथुरा के राजा बने तो कर्मयोग के कारण वापस वृन्दावन कभी नहीं लौट पाये.. जब उन्हें ये समाचार मिला तो उन्होंने अपने परम ज्ञानी दोस्त उद्धव को गोपियों को समझने भेजा की वो विलाप छोड़ दे और दुखी न हो मूर्त रूप को छोड़ कर परम स्वरुप में ध्यान लगाये.. उद्धव को भी घमंड था, अपने ज्ञान का और वो वृन्दावन पहुँच गए और गोपियों को उपदेश देने लगे और उन्हें कृष्ण के शरीर रूपी स्वरुप से मोह का त्याग करने कहने लगे. उद्धव ने गोपियों का उपहास भी उड़ाया.. तब गोपियों ने भी उद्धव को ऐसे ऐसे तर्क दिए, जिन्हे सुन कर उसका भी माथा ठमका और उसे अपना ज्ञान भी कम लगने लगा.. ये तो प्रेम की बात है उद्धव आशिकी इतनी सस्ती नहीं है..!!

उसके उद्धव के उपहास से क्रोधित हो, राधा की सखी ललिता ने श्राप दिया की उद्धवजी आप कृष्ण के शरीर रूप से मोह भंग करने को कह रहे हो पर ये संभव नहीं है, अत्यंत दुष्कर है आप को इस का ज्ञान नहीं है.. ललिता ने श्राप दिया कि जिस तरह हम कृष्ण के दर्शन को तरस रहे है, उसी तरह तुम भी तरसोगे, पर तुम्हे आँखों से दर्शन नहीं होंगे.. तब तुम्हे मन की आँखों से ही देखना होगा, जैसा तुम हमें करने को कह रहे हो.. तब तुम्हे हमारी पीड़ा का एहसास होगा.. उद्धव पर गोपियों का ऐसा रंग चढ़ा कि वो खुद बावले प्रतीत हो रहे थे और उन्होंने कृष्ण के पास जा कर गोपियों का दर्द कहा और खुद भी विलाप करने लगे..!!

तब कृष्ण ने उद्दव को श्राप में सहायता का आश्वासन दिया.. सूरदास के रूप में उसी उद्धव ने जन्म लिया और ललिता का श्राप भोगा.. मन में तो कृष्ण थे, पर अपनी आँखों से वो देख नहीं पाये और तब उन्हें गोपियों के दर्द का एहसास हुआ.. जिसका उन्होंने उद्धव रूप में उपहास उड़ाया था..!!





सबसे ज्यादा प्रचलित सूरदास जी के दोहे -



1. बिन सतसंगते मिलै नहीं मोहि, रति कृष्ण भजन में।

गोरी किरीती कम्पै करि बूझै, तात गुरु बिनु बैकुंठ में॥



2. मानस के हृदय बसहु स्यामा संग, जोय कछु सोवत नहिं अंग।

संगी संग संगी नर, फिरे ताहि पथ देसु, कहि सूरदास भजहुरी मन भावन रंग॥



3. अपने मन को जीतना है, विश्वास रखो राम में।

कर्म करो फल की इच्छा मत करो, इश्वर को समर्पित करो धरती पर॥



4. जाहिं गोराख नाथ नरद, धरतें ध्यान बड़ाई।

सूरदास ने कही आप, तब समुझौं मुख समुझ माई॥



5. चितवत बिरहिनी कृष्ण को, तब मूढ़ जीव भए।

कहते सूरदास, इतना ध्यान, साधो बिरहिनी न सुन जाए॥



6. सूरदास प्रभु साचे, मिलि है निरंजन भाव।

जन सुन सुन बहुत लोभी, ध्यान धरे चार नाव॥



7. दुर्बुद्धि जन जोषी लोभ में, अज्ञान धरै को दार।

सूरदास कहते, ऐसे मन नहीं बिसार॥



8. गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाय।

बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविन्द दियो बताय॥



9. देखा जब तब सभी कोई, लगता दुख का मोह।

सूरदास कहते भजो भगवान, जो तुम्हे मिलें दोनों॥



10. साधु संग लागे आधार, राम भजन रसिक प्यार।

कहते सूरदास, बिन संतोष कोई, किन्ह का मन ध्यार॥



ये दोहे सूरदास जी के काव्यसंग्रह में सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं और सामाजिक, आध्यात्मिक, और नैतिक मुद्दों पर गहरा प्रभाव डालते हैं।





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Tuesday, 7 May 2024

रवींद्रनाथ टैगोर

      

रवींद्रनाथ टैगोर


          रवींद्रनाथ टैगोर भारतीय साहित्य के महान और अग्रणी व्यक्तित्वों में से एक हैं। उन्हें भारतीय और विश्व साहित्य के महान कवि, लेखक, और धर्मगुरु के रूप में जाना जाता है। उनका जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता में हुआ था और उनकी मृत्यु 7 अगस्त 1941 को हुई थी।

        रवींद्रनाथ टैगोर ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपन्यास, कविता, नाटक, गीत, और अन्य विधाओं में अपनी रचनाएँ लिखीं। उनके लेखन में धर्म, प्रेम, और मानवता के महत्वपूर्ण विषयों पर बल दिया गया।

        रवींद्रनाथ टैगोर ने स्वयं को एक विश्व कवि माना, जिनका काव्य और विचार सर्वदेशीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डाला। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से मानवता के साथ जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार किए और सामाजिक परिवर्तन के लिए आवाज उठाई।

        रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं में भावनात्मकता और सुन्दरता का अद्वितीय संगम होता है। उनकी कविताओं में प्रकृति, प्रेम, आत्मविश्वास, और भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम का उदाहरण होता है।

        टैगोर की नाटक रचनाओं में उन्होंने समाज, धर्म, और मानवता के महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया। उनका प्रसिद्ध नाटक "चित्रा" और "रक्तकरवी" इसका अद्वितीय उदाहरण हैं।

        रवींद्रनाथ टैगोर के विचार और उनकी रचनाएँ अभिजात मानवता की अहम पहचान बनीं। उनके विचारों में स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, और मानवता के मूल्यों का प्रमोद था।

        रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने विचारों को स्वतंत्रता संग्राम, राष्ट्रीय एकता, और सामाजिक सुधार के लिए भी उत्तेजित किया। उन्होंने अपनी साहित्यिक और सामाजिक कार्यक्षमता के माध्यम से लोगों को जोड़ा और प्रेरित किया।

        रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव भारतीय समाज में अद्वितीय है। उनके विचारों और रचनाओं का प्रभाव आज भी भारतीय साहित्य, संस्कृति, और समाज पर महसूस किया जा सकता है।

        अंत में, रवींद्रनाथ टैगोर भारतीय साहित्य के एक अमूल्य रत्न हैं, जिनकी रचनाएँ हमें धर्म, प्रेम, और मानवता के महत्व को समझने और महसूस करने का मार्ग दिखाती हैं। उनके विचारों और उनकी कला का महत्व आज भी हमारे जीवन में अटल है। उनके योगदान को सदैव याद रखा जाएगा।

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वीर सावरकर: स्वतंत्रता सेनानी

 



वीर सावरकर


स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भारतीय राष्ट्र की गर्वशाली धारा है। इस संग्राम में निरंतर प्रेरणा और समर्पण के प्रतीक के रूप में अनेक वीर सेनानी ने अपने बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनमें से एक नाम है, वीर सावरकर। वे न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण योद्धा थे, बल्कि उनकी विचारधारा और साहस ने देशवासियों को एक समृद्ध और स्वतंत्र भारत की दिशा में अग्रसर किया।



वीर सावरकर का जन्म २८ मई, १८८३ को महाराष्ट्र के भगुर में हुआ था। उनके पिता का नाम दामोदर पंत सावरकर था और माता का नाम राधाबाई था। बचपन से ही सावरकर ने देश के प्रति अपनी समर्पण भावना का प्रदर्शन किया था। उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और विवेकानंद के विचारों से प्रभावित होकर राष्ट्र सेवा का मार्ग चुना।


सावरकर का योगदान स्वतंत्रता संग्राम में अविस्मरणीय था। उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी जान को खतरे में डाला। उन्होंने विभाजन के खिलाफ एकता की अपील की और अपने विचारों को लोगों के बीच फैलाने के लिए विभिन्न धार्मिक और सामाजिक सभाओं का संचालन किया।


सावरकर को स्वतंत्रता संग्राम में उनके अद्भुत योगदान के लिए उन्हें १९२४ में ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस प्रशासन के विरुद्ध अपराधिक रूप से गिरफ्तार किया था। उन्हें काला पानी, ताजा वायरस जैसी कठिन शारीरिक और मानसिक प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ा। हालांकि, इन सभी कठिनाइयों के बावजूद, उनकी अद्भुत आत्मगाथा और निष्ठा ने उन्हें अद्वितीय बना दिया।


सावरकर की विचारधारा में राष्ट्रवाद, स्वाधीनता और समाज की समृद्धि के लिए समर्पण शामिल था। उनकी प्रेरणा और आदर्शों ने लाखों लोगों को राष्ट्रीय उत्थान की दिशा में प्रेरित किया।


उनका जीवन एक उदाहरण प्रस्तुत करता है कि एक व्यक्ति अपने संघर्षों और विपदाओं के बावजूद भी अपने लक्ष्यों को हासिल कर सकता है। सावरकर के विचार और योगदान को समझने के लिए हमें उनकी जीवनी और कार्य का अध्ययन करना चाहिए।


उनकी विचारधारा में राष्ट्रप्रेम, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय को बल देने के लिए उन्होंने कई पुस्तकें और लेख लिखे। उनकी किताब "हिंदू राष्ट्र की स्थापना" और "कितना पहचान जारी है" भारतीय समाज को जागरूक करने वाली किताबें हैं।


सावरकर को एक समर्थक और एक कट्टरपंथी राष्ट्रवादी के रूप में देखा जाता है। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा थे, जिनका योगदान देश के इतिहास में अविस्मरणीय है। उनका संघर्ष और समर्पण हमें आज भी प्रेरित करता है और हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता की राह पर हमें समर्पित और संघर्षशील रहना होगा।


वीर सावरकर की प्रेरणा का उपयोग करते हुए हमें समृद्ध और स्वतंत्र भारत की दिशा में अग्रसर होने की दिशा में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। उनके योगदान को याद करते हुए हमें समृद्ध और स्वतंत्र भारत की दिशा में अग्रसर होने की दिशा में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। उनके योगदान को याद करते हुए हमें समृद्ध और स्वतंत्र भारत की दिशा में अग्रसर होने की दिशा में कड़ी मेहनत करनी चाहिए।

वीर सावरकर ने अपने जीवन में राष्ट्रप्रेम, समर्पण और साहस के उदाहरण से हमें स्वतंत्र भारत की दिशा में अग्रसर करने का संदेश दिया। उनके योगदान को याद करते हुए हमें आज भी उनके आदर्शों का पालन करना चाहिए और देश के विकास में अपना योगदान देना चाहिए।


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