संत कबीर जी का जीवन लीला का समय पूरा होने वाला था। संसार से विदा लेने वाले थे, सभी भक्त दौड़-दौड़ कर आ रहे थे। वीर देव बघेला काशी के राजा थे, वह पहले कबीर जी का विरोध करते थे, लेकिन बाद में बहुत बड़े भक्त बन गए। विरोध इसलिए करते थे कि कबीर जी उनका महल देखें और उनकी सराहना करें, ऐसा उनका विचार था। पर कबीर दास जी ने कहा कि महल में दो अवगुण हैं। एक तो यह सदा नहीं रहेगा और दूसरा साथ नहीं चलेगा। राजा बघेल के अहंकार को चोट लगी, पर बाद में उन्होंने बहुत सोचा और सोचते-सोचते कहा कि बात तो सही है। ना तो यह महल हमेशा रहेगा और न ही मेरे साथ चलेगा।
जब राजा को पता चला कि कबीर दास जी संसार से विदा लेने वाले हैं, तब वह दौड़ते-दौड़ते आए और उनके चरणों में गिरे और प्रणाम किया। वह कभी कबीर दास जी को देखते और कभी उनके चरणों में प्रणाम करते। राजा ने कहा, "महाराज, आप जा रहे हैं, मैं प्रण किया था कि गुरुदेव को अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाऊंगा, उनकी सेवा करूंगा और आप चोला छोड़ रहे हैं। तो मैं भी आपके साथ चलूंगा।" तभी कबीर जी ने देखा कि हृदय में सच्चाई है। कबीर जी तनिक मौन हुए और ईश्वर की मौज में डूबे, फिर सभी पर कृपापूर्ण दृष्टि डाली और वीर सिंह बघेल जी से कहा कि तुमने सच्चाई से प्रण किया है, ठीक है, 5 साल रुक जाते हैं। वीर सिंह बघेल राज भार, जिसको देना था, दे कर एक साधारण रसोईया और साधारण सफाई करने वाला बन गए और गुरु के द्वार पर आकर सेवा करने लग गए।
“गुरु की सेवा साधु जाने, गुरु सेवा क्या मूढ़ पिछाने”
कबीर दास जी के 5 साल पूरे हो गए। बघेल की सेवा से संतुष्ट हुए कबीर दास जी ने जाते-जाते कहा कि बाघेला कि नाई अहंकार छोड़कर सच्चाई से सेवा करना।
“क्योंकि देखने वाला तुम्हारी सच्चाई को भी देखता है और तुम्हारे दिखावेपन को भी देखता है।”
धन्य हैं भारत के ऐसे संत जो हँसते-खेलते मृत्यु को भी टाल देते हैं। शिष्य के प्रेम और संकल्प के खातिर अपना संकल्प बदल देते हैं। बघेल जैसे शिष्य भी धन्य हैं जो अपना राजपाट छोड़, अहंकार छोड़ गुरु के द्वार में झाड़ू-बुहारी करते, बर्तन मांजते हैं। धन्य है भारत की गुरु-शिष्य परंपरा। धन्य है यहाँ की संस्कृति जहाँ स्वयं भगवान भी जन्म लेने को लालायित होते हैं।
* * * * *