Wednesday, 11 March 2015

Vinoba Bhave:Maa ki Bhagbat drusti # आचार्य विनोबा भावे : माँ की भगवत दॄष्टि





 


                             आचार्य विनोबा भावे




विनोबा भावे किसी साधारण माँ के बालक नहीं थे। उनकी माँ यज्ञ करना जानती थी और केवल अग्नि में आहुतिवाला यज्ञ नहीं वरन् गरीब-गुरबे को भोजन कराने का यज्ञ करना जानती थी।  विनोबा भावे के पिता नरहरि भावे शिक्षक थे। उन्हें नपा तुला वेतन मिलता था फिर भी सोचते थे कि जीवन में कुछ-न-कुछ सत्कर्म होना चाहिए। किसी गरीब सदाचारी विद्यार्थी को ले आते और अपने घर में रखते। माता रखुनाई अपने बेटों को भी भोजन कराती और उस अनाथ बालक को भी भोजन कराती किंतु खिलाने में पक्षपात करती। एक दिन बालक विनोबा ने माँ से कहाः

''माँ ! तुम कहती हो कि सबमें भगवान है, किसी से पक्षपात नहीं करना चाहिए। परंतु तुम खुद ही पक्षपात क्यों करती हो? जब बासी रोटी बचती है तो उसे गर्म करके तुम मुझे खिलाती हो, खुद खाती हो किंतु उस अनाथ विद्यार्थी के लिए गर्म-गर्म रोटी बनाती हो। ऐसा पक्षपात क्यों, माँ?"

वह बोलीः "मेरे लाल ! मुझे तू अपना बेटा लगता है परंतु वह बालक अतिथिदेव है, भगवान का स्वरूप है। उसमें मुझे भगवान दिखते हैं। जिस दिन तुझमें भी मुझे भगवान दिखेंगे उस दिन तुझे भी ताजी-ताजी रोटी खिलाऊँगी।"

भारत की उस देवी ने क्या गजब का उत्तर दिया है ! यह धर्म, संस्कृति नहीं तो और क्या है? वास्तव में यही धर्म है और यही यज्ञ है। अग्नि में घी की आहुतियाँ ही केवल यज्ञ है और दीन-दुःखी-गरीब को मदद करना, उनके आँसू पोंछना भी यज्ञ है और दीन-दुःखियों की सेवा ही वास्तव में परमात्मा की सेवा है, यह युग के अनुरूप यज्ञ है। यह इस युग की माँग है।






Monday, 9 March 2015

kabir ji ki gurunistha # कबीर जी की गुरुनिष्ठा


      एक समय काशी में रामानंद स्वामी बड़े उच्च कोटि के महापुरुष माने जाते थे। कबीर जी उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर द्वारपाल से विनती कीः "मुझे गुरुजी के दर्शन करा दो।"
उस समय जात-पाँत का बड़ा बोलबाला था। और फिर काशी ! पंडितों और पंडे लोगों का अधिक प्रभाव था। कबीरजी किसके घर पैदा हुए थे – हिंदू के या मुसलिम के? कुछ पता नहीं था। एक जुलाहे को तालाब के किनारे मिले थे। उसने कबीर जी का पालन-पोषण करके उन्हें बड़ा किया था। जुलाहे के घर बड़े हुए तो जुलाहे का धंधा करने लगे। लोग मानते थे कि वे मुसलमान की संतान हैं।
द्वारपालों ने कबीरजी को आश्रम में नहीं जाने दिया। कबीर जी ने सोचा कि 'अगर पहुँचे हुए महात्मा से गुरुमंत्र नहीं मिला तो मनमानी साधना से 'हरिदास' बन सकते हैं 'हरिमय' नहीं बन सकते। कैसे भी करके रामानंद जी महाराज से ही मंत्रदीक्षा लेनी है।'
कबीरजी ने देखा कि हररोज सुबह 3-4 बजे स्वामी रामानंदजी खड़ाऊँ पहन कर टप...टप आवाज करते हुए गंगा में स्नान करने जाते हैं। कबीर जी ने गंगा के घाट पर उनके जाने के रास्ते में सब जगह बाड़ कर दी और एक ही मार्ग रखा। उस मार्ग में सुबह के अँधेरे में कबीर जी सो गये। गुरु महाराज आये तो अँधेरे के कारण कबीरजी पर पैर पड़ गया। उनके मुख से उदगार निकल पड़ेः 'राम..... राम...!'
कबीरजी का तो काम बन गया। गुरुजी के दर्शन भी हो गये, उनकी पादुकाओं का स्पर्श तथा मुख से 'राम' मंत्र भी मिल गया। अब दीक्षा में बाकी ही क्या रहा? कबीर जी नाचते, गुनगुनाते घर वापस आये। राम नाम की और गुरुदेव के नाम की रट लगा दी। अत्यंत स्नेहपूर्ण हृदय से गुरुमंत्र का जप करते, गुरुनाम का कीर्तन करते हुए साधना करने लगे। दिनोंदिन उनकी मस्ती बढ़ने लगी।
महापुरुष जहाँ पहुँचे हैं वहाँ की अनुभूति उनका भावपूर्ण हृदय से चिंतन करने वाले को भी होने लगती है।
काशी के पंडितों ने देखा कि यवन का पुत्र कबीर रामनाम जपता है, रामानंद के नाम का कीर्तन करता है। उस यवन को रामनाम की दीक्षा किसने दी? क्यों दी? मंत्र को भ्रष्ट कर दिया ! पंडितों ने कबीर जी से पूछाः "तुमको रामनाम की दीक्षा किसने दी?"  
"स्वामी रामानंदजी महाराज के श्रीमुख से मिली।"
"कहाँ दी?"
"गंगा के घाट पर।"
पंडित पहुँचे रामानंदजी के पासः "आपने यवन को राममंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया, सम्प्रदाय को भ्रष्ट कर दिया। गुरु महाराज ! यह आपने क्या किया?"
गुरु महाराज ने कहाः "मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी।"
"वह यवन जुलाहा तो रामानंद..... रामानंद..... मेरे गुरुदेव रामानंद...' की रट लगाकर नाचता है, आपका नाम बदनाम करता है।"
"भाई ! मैंने तो उसको कुछ नहीं कहा। उसको बुला कर पूछा जाय। पता चल जायगा।"
काशी के पंडित इकट्ठे हो गये। जुलाहा सच्चा कि रामानंदजी सच्चे – यह देखने के लिए भीड़ हो गयी। कबीर जी को बुलाया गया। गुरु महाराज मंच पर विराजमान हैं। सामने विद्वान पंडितों की सभा है।
रामानंदजी ने कबीर से पूछाः "मैंने तुम्हें कब दीक्षा दी? मैं कब तेरा गुरु बना?"
कबीरजी बोलेः महाराज ! उस दिन प्रभात को आपने मुझे पादुका-स्पर्श कराया और राममंत्र भी दिया, वहाँ गंगा के घाट पर।"
रामानंद स्वामी ने कबीरजी के सिर पर धीरे-से खड़ाऊँ मारते हुए कहाः "राम... राम.. राम.... मुझे झूठा बनाता है? गंगा के घाट पर मैंने तुझे कब दीक्षा दी थी ?
कबीरजी बोल उठेः "गुरु महाराज ! तब की दीक्षा झूठी तो अब की तो सच्ची....! मुख से राम नाम का मंत्र भी मिल गया और सिर पर आपकी पावन पादुका का स्पर्श भी हो गया।"
स्वामी रामानंदजी उच्च कोटि के संत महात्मा थे। उन्होंने पंडितों से कहाः "चलो, यवन हो या कुछ भी हो, मेरा पहले नंबर का शिष्य यही है।"
ब्रह्मनिष्ठ सत्पुरुषों की विद्या हो या दीक्षा, प्रसाद खाकर मिले तो भी बेड़ा पार करती है और मार खाकर मिले तो भी बेड़ा पार कर देती है।
इस प्रकार कबीर जी ने गुरुनाम कीर्तन से अपनी सुषुप्त शक्तियाँ जगायीं और शीघ्र आत्मकल्याण कर लिया।




Tansen - 'तानसेन'


  





मकरन्द पांडे के घर किसी संत की दुआ से एक बालक का जन्म हुआ। 13-14 वर्ष की उम्र में वह बालक ग्वालियर के पास किसी गाँव में आम के एक बगीचे की रखवाली करने के लिए गया। उसका नाम तन्ना था। वह कुछ पशुओं की आवाज निकालना जानता था।
हरिदास महाराज अपने भक्तों को लेकर हरिद्वार से लौट रहे थे। वे उसी बगीचे में आराम करने के लिए रुके। इतने में अचानक शेर की गर्जना सुनाई दी। शेर की गर्जना सुनकर सारे यात्री भाग खड़े हुए। हरिदास महाराज ने सोचा कि'गाँव के बगीचे में शेर कहाँ से आ सकता है?' इधर-उधर झौंककर देखा तो एक लड़का छुपकर हँस रहा था। महाराज ने पूछाः "शेर की आवाज तूने की न?"
तन्ना ने कहाः "हाँ।" महाराज के कहने पर उसने दूसरे जानवरों की भी आवाज निकालकर दिखायी। हरिदास महाराज ने उसके पिता को बुलाकर कहाः "इस बेटे को मेरे साथ भेज दो।"
पिता ने सम्मति दे दी। हरिदास महाराज ने शेर, भालू या घोड़े-गधे की आवाजें जहाँ से पैदा होती हैं उधर (आत्मस्वरूप) की ओर ले जाने वाला गुरुमंत्र दे दिया और थोड़ी संगीत-साधना करवायी। तन्ना साल में 10-15 दिन अपने गाँव आता और शेष समय वृंदावन में हरिदासजी महाराज के पास रहता। बड़ा होने पर उसकी शादी हुई।
एक बार ग्वालियर में अकाल पड़ गया। उस समय के राजा रामचंद्र ने सेठों को बुलाकर कहाः "गरीबों के आँसू पोंछने के लिए चंदा इकट्ठा करना है।"
किसी ने कुछ दिया, किसी ने कुछ... हरिदास के शिष्य तन्ना ने अपनी पत्नी के जेवर देते हुए कहाः "राजा साहब ! गरीबों की सेवा में इतना ही दे सकता हूँ।"
राजा उसकी प्रतिभा को जानता था। राजा ने कहाः "तुम साधारण आदमी नहीं हो, तुम्हारे पास गुरुदेव का दिया हुआ मंत्र हैं और तुम गुरु के आश्रम में रह चुके हो। तुम्हारे गुरु समर्थ हैं। तुमने गुरुआज्ञा का पालन किया है। तुम्हारे पास गुरुकृपारूपी धन है। हम तुमसे ये गहने-गाँठेरूपी धन नहीं लेंगे बल्कि गुरुकृपा का धन चाहेंगे।"
"महाराज ! मैं समझा नहीं।"
"तुम अगर गुरु के साथ तादात्म्य करके मेघ राग गाओगे तो यह अकाल सुकाल में बदल सकता है। सूखा हरियाली में बदल सकता है। भूख तृप्ति में बदल सकती है और मौतें जीवन में बदल सकती हैं। श्रद्धा और विश्वास से गुरुमंत्र जपने वाले की कविताओं में भी बल आ जाता है। तुम केवल सहमति दे दो और कोई दिन निश्चित कर लो। उस दिन हमसब इस राजदरबार में ईश्वर को प्रार्थना करते हुए बैठेंगे और तुम मेघ राग गाना।"
राग-रगिनियों में बड़ी ताकत होती है। जब झूठे शब्द भी कलह और झगड़े पैदा कर सक देते हैं तो सच्चे शब्द, ईश्वरीय यकीन क्या नहीं कर सकता? तारीख तय हो गयी। राज्य में ढिंढोरा पीट दिया गया।
उन दिनों दिल्ली के बादशाह अकबर का सिपहसालार ग्वालियर आया हुआ था। ढिंढोरा सुनकर उसने दिल्ली जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। उसने सोचा कि 'तन्ना के मेघ राग गाने से क्या सचमुच बरसात हो सकती है? यह मुझे अपनी आँखों से देखना है।'
कार्यक्रम की तैयारी हुई। तन्ना थोड़ा जप-ध्यान करके आया था। उसका हाथ वीणा की तारों पर घूमने लगा। सबने अपने दिल के यकीन की तारों पर भी श्रद्धा के सुमन चढ़ायेः
'हे सर्वसमर्थ, करूणा-वरूणा के धनी, मेघों के मालिक वरूण देव, आत्मदेव, कर्ता-भोक्ता महेश्वर परमेश्वर ! तेरी करूणा-कृपा इन भूखे जानवरों पर और गलतियों के घर – इन्सानों पर बरसे...
हम अपने कर्मों को तोलें तो दिल धड़कता है। किंतु तेरी करूणा पर, तेरी कृपा पर हमें विश्वास है। हम अपने कर्मों के बल से नहीं किंतु तेरी करूणा के भरोसे, तेरे औदार्य के भरोसे तुझसे प्रार्थना करते हैं.....
हे गोबिन्द !  हे गोपाल ! हे वरूण देव ! इस मेघ राग से प्रसन्न होकर तू अपने मेघों को आज्ञा कर सकता है और अभी-अभी तेरे मेघ इस इलाके की अनावृष्टि को सुवृष्टि में बदल सकते हैं।
इधर तन्ना ने मेघ बरसाने के लिए मेघ राग गाना शुरु किया और देखते-ही-देखते आकाश में बादल मँडराने लगे.... ग्वालियर की राजधानी और राजदरबार मेघों की घटाओं से आच्छादित होने लगा। राग पूरा हो उसके पूर्व ही सृष्टिकर्ता ने पूरी कृपा बरसायी और जोरदार बरसात होने लगी !
अकबर का सिपहसालार देखकर दंग रहा गया कि कवि के गान में इतनी क्षमता कि बरसात ला दे। सिपहसालार ने दिल्ली जाकर अकबर को यह घटना सुनायी। अकबर ने ग्वालियर नरेश को समझा-बुझाकर तन्ना को माँग लिया। अब तन्ना 'कवि तन्ना' नहीं रहे बल्कि अकबर के नवरत्नों में एक रत्न 'तानसेन' के नाम से सम्मानित हुए।