
आचार्य विनोबा भावे
विनोबा
भावे किसी
साधारण माँ के
बालक नहीं थे।
उनकी माँ यज्ञ
करना जानती थी
और केवल अग्नि
में
आहुतिवाला
यज्ञ नहीं
वरन् गरीब-गुरबे
को भोजन कराने
का यज्ञ करना
जानती थी। विनोबा
भावे के पिता
नरहरि भावे
शिक्षक थे।
उन्हें नपा
तुला वेतन
मिलता था फिर
भी सोचते थे
कि जीवन में
कुछ-न-कुछ
सत्कर्म होना चाहिए।
किसी गरीब
सदाचारी
विद्यार्थी
को ले आते और
अपने घर में
रखते। माता
रखुनाई अपने
बेटों को भी
भोजन कराती और
उस अनाथ बालक
को भी भोजन
कराती किंतु
खिलाने में
पक्षपात
करती। एक दिन
बालक विनोबा
ने माँ से
कहाः
''माँ !
तुम कहती हो
कि सबमें
भगवान है,
किसी से पक्षपात
नहीं करना
चाहिए। परंतु
तुम खुद ही
पक्षपात
क्यों करती हो? जब
बासी रोटी
बचती है तो
उसे गर्म करके
तुम मुझे
खिलाती हो,
खुद खाती हो
किंतु उस अनाथ
विद्यार्थी
के लिए
गर्म-गर्म
रोटी बनाती
हो। ऐसा
पक्षपात
क्यों, माँ?"
वह
बोलीः "मेरे
लाल ! मुझे तू
अपना बेटा
लगता है परंतु
वह बालक अतिथिदेव
है, भगवान का
स्वरूप है।
उसमें मुझे
भगवान दिखते
हैं। जिस दिन
तुझमें भी
मुझे भगवान
दिखेंगे उस
दिन तुझे भी
ताजी-ताजी
रोटी
खिलाऊँगी।"
भारत की
उस देवी ने
क्या गजब का
उत्तर दिया है
!
यह धर्म,
संस्कृति
नहीं तो और
क्या है?
वास्तव में
यही धर्म है
और यही यज्ञ
है। अग्नि में
घी की आहुतियाँ
ही केवल यज्ञ
है और
दीन-दुःखी-गरीब
को मदद करना,
उनके आँसू
पोंछना भी
यज्ञ है और
दीन-दुःखियों
की सेवा ही
वास्तव में
परमात्मा की सेवा
है, यह युग के
अनुरूप यज्ञ
है। यह इस युग
की माँग है।
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