Saturday, 30 July 2016

BABA FARID KI GURUBHAKTI - बाबा फरीद की गुरुभक्ति









पाकिस्तान में बाबा फरीद नाम के एक फकीर हो गये। वे अनन्य गुरुभक्त थे। गुरुजी की सेवा में ही उनका सारा समय व्यतीत होता था।
एक बार उनके गुरु ख्वाजा बहाउद्दीन ने उनको किसी खास काम के लिए मुलतान भेजा। उन दिनों वहाँ शम्सतबरेज के शिष्यों ने गुरु के नाम का दरवाजा बनाया था और घोषणा की थी कि आज इस दरवाजे से जो गुजरेगा वह जरूर स्वर्ग में जायेगा। हजारों फकीरों दरवाजे से गुजर रहे थे। नश्वर शरीर के त्याग के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा ऐसी सबको आशा थी। फरीद को भी उनके मित्र फकीरों ने दरवाजे से गुजरने के लिए खूब समझाया, परंतु फरीद तो उनको जैसे-तैसे समझा-पटाकर अपना काम पूरा करके, बिना दरवाजे से गुजरे ही अपने गुरुदेव के चरणों में पहुँच गये।
सर्वान्तर्यामी गुरुदेव ने उनसे मुलतान के समाचार पूछे और कोई विशेष घटना हो तो बताने के लिए कहा। फरीद ने शाह शम्सतबरेज के दरवाजे का वर्णन करके सारी हकीकत सुना दी।
गुरुदेव बोलेः "मैं भी वहीं होता तो उस पवित्र दरवाजे से गुजरता। तुम कितने भाग्यशाली हो फरीद कि तुमको उस पवित्र दरवाजे से गुजरने का सुअवसर प्राप्त हुआ !"
सदगुरु की लीला बड़ी अजीबो गरीब होती है। शिष्य को पता भी नहीं चलता और वे उसकी कसौटी कर लेते हैं। फरीद तो सतशिष्य थे। उनको अपने गुरुदेव के प्रति अनन्य भक्ति थी।
गुरुदेव के शब्द सुनकर बोलेः "कृपानाथ ! मैं तो उस दरवाजे से नहीं गुजरा। मैं तो केवल आपके दरवाजे से ही गुजरूँगा। एक बार मैंने आपकी शरण ले ली है तो अब किसी और की शरण मुझे नहीं जाना है।"
यह सुनकर ख्वाजा बहाउद्दीन की आँखों में प्रेम उमड़ आया। शिष्य की दृढ श्रद्धा और अनन्य शरणागति देखकर उसे उन्होंने छाती से लगा लिया। उनके हृदय की गहराई से आशीर्वाद के शब्द निकल पड़ेः "फरीद ! शम्सतबरेज का दरवाजा तो केवल एक ही दिन खुला था, परंतु तुम्हारा दरवाजा तो ऐसा खुलेगा कि उसमें से जो हर गुरुवार को गुजरेगा वह सीधा स्वर्ग में जायेगा।"
आज भी पश्चिमी पाकिस्तान के पाक पट्टन कस्बे में बने हुए बाबा फरीद के दरवाजे में से हर गुरुवार के गुजरकर हजारों यात्री अपने को धन्यभागी मानते हैं। यह है गुरुदेव के प्रति अनन्य निष्ठा की महिमा ! धन्यवाद है बाबा फरीद जैसे सतशिष्यों को, जिन्होंने सदगुरु के हाथों में अपने जीवन की बागडोर हमेशा के लिए सौंप दी और निश्चिंत हो गये।
आत्मसाक्षात्कार या तत्त्वबोध तब तक संभव नहीं, जब तक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष साधक के अन्तःकरण का संचालन नहीं करते। आत्मवेत्ता महापुरुष जब हमारे अन्तःकरण का संचालन करते हैं, तभी अन्तःकरण परमात्म-तत्त्व में स्थित हो सकता है, नहीं तो किसी अवस्था में, किसी मान्यता में, किसी वृत्ति में, किसी आदत में साधक रुक जाता है। रोज आसन किये, प्राणायाम किये, शरीर स्वस्थ रहा, सुख-दुःख के प्रसंग में चोटें कम लगीं, घर में आसक्ति कम हुई, पर व्यक्तित्व बना रहेगा। उससे आगे जाना है तो महापुरुषों के आगे बिल्कुल 'मर जाना' पड़ेगा। ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के हाथों में जब हमारे 'मैं' की लगाम आती है, तब आगे की यात्रा आती है।
देवर्षि नारदजी धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं- "हृदयों में ज्ञान का दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथी के स्नान के समान व्यर्थ है।
बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलों का अनुसंधान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुष के अधीश्वर वे स्वयं भगवान ही गुरुदेव के रूप में प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रम से मनुष्य मानते हैं।" (श्रीमद् भागवतः 7.15.26-27)




****** संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग से







Friday, 29 July 2016

BENA BAI KI GURUNISTHA - वेणाबाई की गुरुनिष्ठा





एक बार समर्थ रामदासजी मिरज गाँव (महाराष्ट्र) पधारे | वहाँ उन्होंने किसी विधवा कन्या को तुलसी के वृंदावन (गमले) के पास कोई ग्रंथ पढ़ते देख पूछा : “कन्या! कौन-सा ग्रंथ पढ़ रही हो?”
“एकनाथी भागवत |”
“ग्रंथ तो अच्छा खोजा हैं किंतु उसका भागवत धर्म समझा क्या ?”
“स्वामीजी ! मुझे भोली-भली को क्या समझ में आयेगा और समझायेगा भी कौन ? मैं तो सिर्फ देख रही थी |”
सच्चे, भोले व छल-कपटरहित मनवाले व्यक्ति पर भगवान व भगवत्प्राप्त महापुरुष सहज में ही बरस जाते हैं | समर्थजी भी उसकी यह सरल, निर्दोष ह्रदय की बात सुनकर प्रसन्न हो गये व मौन रहकर अपनी नूरानी नजरों से उस कन्या पर कृपा बरसा के चल दिये | उनकी कृपा से वेणा के ह्रदय में भागवत धम्र जानने की अत्यंत तीव्र उत्कंठा जाग उठी | उसने एक बुजुर्ग से भागवत धर्म समझाने के लिए आग्रह किया परंतु उन्होंने कहा : “बेटी! तुझे जो सत्पुरुष मिले थे न, वे तो परमात्मा का प्रकट रूप है, भागवत धर्म का साक्षात् विग्रह हैं, वे ही तुझे भागवत धर्म का सही अर्थ बता सकते हैं |”
यह सुनते ही वेणा के ह्रदयपटल पर समर्थजी की मनोहर छवि छा गयी और वह उनके दर्शन की अस में चातक की नाई व्याकुल रहने लगी | ईश्वर माँग और पूर्ति का विषय है | जिसकी तीव्र माँग, तीव्र तडप होती हैं, ईश्वर और गुरु स्वयं ही उसके पास खिंचे चले आते हैं | वेणाबाई के ह्रदय की पुकार समर्थजी तक पहुँच गयी और वे भ्रमण करते हुए वहाँ आ पहुँचे | वेणा ने बड़े ही अहोभाव से उनका पूजन किया और मंत्रदीक्षा के लिए याचना की | वेणा की तडप देखकर समर्थ प्रसन्न हुए और उसे दीक्षा देकर पुन: यात्रा पर चले गये | इधर वेणा भगवत्प्रेम के रंग में ऐसी रँग गयी कि उसका सारा दिन गुरु-स्मरण, गुरुमंत्र-जप व कीर्तन-ध्यान में बीतने लगा |
कुछ दिनों बाद वेणाबाई को पता चला कि गुरु समर्थ का कीर्तन-सत्संग कोल्हापुर के माँ अम्बा मंदिर में चल रहा है | वेणा तुरंत वहाँ पहुँची | अब वह नित्य अपने गुरुदेव का सत्संग एकाग्रता व प्रेम से सुनती, गुरूजी को एकटक देखती और तत्परता से वहाँ सेवा करती | जब समर्थ का कीर्तन होता तो उसमें वह इतनी तन्मय होती कि उसे अपनी देह की भी सुध नहीं रहती | जब गुरूजी का वहाँ से प्रस्थान करने का समय आया तो वेणा ने गुरूजी को उनके साथ उसे भी ले चलने की प्रार्थना की | समर्थजी ने लोकनिंदा का भय बताकर वेणा के समर्पण की परीक्षा लेनी चाही | वेणाबाई ने कहा : “गुरुदेव ! संसारी लोग मेरे उद्धार का मार्ग नही जानते तो उनकी बात मानने से मुझे क्या लाभ ? यदि आप मुझे साथ नहीं ले गये तो ये प्राण इस तन में नहीं रह पायेंगे | निरर्थक आयुष्य बिताने से मरना अच्छा !”
वेणा की निष्ठा देखकर समर्थजी अति प्रसन्न हुए तथा उसे आश्वासन दिया कि समय आने पर वे उसे जरुर ले जायेंगे |
गुरु-शिष्या की इस वार्ता को सुनकर किन्ही दुष्ट लोगों ने वेणा के सास-ससुर के कान भर दिये | सास-ससुर ने बीना कुछ सोचे-समझे वेणाबाई को हमेशा के लिए मायके भेज दिया | वहाँ भी स्वार्थी संसार ने अपना असली रूप दिखाया | लोकनिंदा के भय से माता-पिता ने वेणा को जहर खिला दिया | जहर के प्रभाव से वेणा के प्राण निकलने लगे लेकिन धन्य है उसकी गुरुनिष्ठा ! धन्य है उसकी ईश्वरप्रीति ! कि मौत गले का हार बन रही है और वेणा को अब मुझे गुरु माउली का दर्शन-सान्निध्य कैसे मिलेगा ?’ यह दुःख सताये जा रहा है | शिष्या की पुकार सुन गुरु समर्थ वेणा के कमरे में प्रकट हो गये | भारी पीड़ा में भी वेणा ने गुरूजी के चरणों में प्रणाम किया | गुरु समर्थ ने वेणा के मस्तक पर अपना कृपाहस्त रखा और उसके शरीर में नवचेतना का संचार हो गया |
माता-पिता ने जैसे ही दरवाजा खोला तो आश्चर्य ! वेणा बड़े आनंद से गुरूजी से उपदेश सुन रही थी | अपने स्वार्थपूर्ण दुष्कृत्य से लज्जित हो माँ-बाप ने समर्थजी से क्षमा माँगी : “ महाराज ! लोकनिंदा के भय से हमसे इतना बड़ा अपराध हो गया | अब आपकी कृपा से हमारी वेणा हमें वापस मिल गयी |”
समर्थजी मुस्कराये, बोले : “तुम्हारी वेणा ! वाह तो जब तुमने विष दिया तभी मर गयी थी | अब जो वेणा तुम्हे दिख रही है, वाह समर्थ की सतशिष्या ‘वेणाबाई ‘ है और अब वह रामजी की सेवा के लिए जायेगी |”
माता-पिता ने वेणा को जाने से बहुत रोका किंतु उसके चित्त में वैराग्य का सागर हिलोरें ले रहा था, वह एक पल भी नहीं रुकी |
समर्थ रामदासजी के सान्निध्य में रहते हुए वेणाबाई बड़ी निष्ठा एवं सत्संगीयों के लिए भोजन बनाना आदि सेवाओं में लगाती थी और कुछ समय सत्संग-कीर्तन-ध्यान में आकर तन्मय हो जाती | उसकी सेवानिष्ठा से सभी प्रसन्न थे | समय पाकर प्रखर सेवा-साधना के प्रभाव से उसका भक्तियोग फलित हो गया और गुरुकृपा से उसके ह्रदय में भागवत धर्म का रहस्य प्रकट हो गया |
एक बार रामनवमी के उत्सव पर वेणा ने गुरुदेव समर्थ से देह छोडकर राम-तत्व से एकाकार होने की आज्ञा माँगी | समर्थ बोले : “समय आने पर मैं स्वयं तुझे आज्ञा दूँगा |” वेणाबाई ने गुरुआज्ञा शिरोधार्य की |
कुछ दिनों बाद अचानक समर्थजी बोले : “वेणे ! आज तेरा कीर्तन सुनने के बाद मैं तुम्हे निर्वाण देता हूँ |”
गुरुह्र्द्य का छलकता प्रेम वेणाबाई ने पचा लिया था | उसने गुरूजी को प्रणाम किया और कीर्तन में तन्मय हो गयी | कीर्तन चला तो ऐसा चला, मानो भक्तिरस के सागर में ज्वार आकर वह चर्म पर पहुँच गया हो | वेणाबाई के वियोग की घड़ियाँ जानकर सभीकी आँखों से आँसुओं की धाराएँ बह चलीं | कीर्तन पूरा होते – होते वेणा की भावसमाधि लग गयी | समर्थजी भी कुछ समय समाधिस्थ हुए, फिर बोले “वेणा ! तुमने गुरुभक्ति व निष्ठा की अखंड ज्योत जलाकर असंख्य लोगों को भक्ति का मार्ग दिखाया हैं | तुम्हारा जीवन सार्थक हो गया है | अब तुम आनंद से रामचरण में जाओ |”
वेणाबाई भावविभोर होकर बोली : “करुणासागर गुरुदेव ! जीवनभर मैंने आपके ही चरणों में सच्चा सुख, सच्चा ज्ञान, सच्चे आनंद की अनुभूति पायी हैं | आपके चरण ही मेरे लिए रामचरण हैं, उन्हीमे मुझे परम विश्रांति मिलेगी |” ऐसा कहते – कहते वेणाबाई ने समर्थजी के चरणों में अपना मस्तक रखा और ‘रामदास माऊली’ शब्दों का उच्चारण कर वह राम-तत्त्व से एकाकार हो गयी |
धन्य है वेणाबाई की गुरुभक्ति और गुरुनिष्ठा ! वेणा का तुलसी –वृंदावन आज भी उसकी गुरुभक्ति की अमर गाथाएँ सुनाता है |

ऋषि प्रसाद, जुलाई २०१३

Thursday, 28 July 2016

ratan bai ki guru bhakti - रतनबाई की गुरुभक्ति

रतनबाई की गुरुभक्ति



गुजरात के सौराष्ट्र प्रान्त में नरसिंह मेहता नाम के एक उच्च कोटि के महापुरुष हो गये हैं। वे जब भजन गाते थे तब श्रोतागण भक्तिभाव से सराबोर हो उठते थे।
दो लडकियाँ नरसिंह मेहता की बडी भक्तिन थीं। लोगों ने अफवाह फैला दी कि उन दो कुँवारी युवतियों के साथ नरसिंह मेहता का कुछ गलत संबंध है। कलियुग में बुरी बात फैलाना बडा आसान है । जिसके अंदर बुराइयाँ हैं वह आदमी दूसरों की बुरी बात जल्दी से मान लेता है । अफवाह बडी तेजी से फैल गयी ।
उन लडकियों के पिता और भाई भी ऐसे ही थे। उन दोनों के भाई एवं पिता ने उनकी खूब पिटाई की और कहा :‘‘तुम लोगों ने तो हमारी इज्जत खराब कर दी। हम बाजार से गुजरते हैं तो लोग बोलते हैं कि इन्हीं की वे लडकियाँ हैं, जिनके साथ नरसिंह मेहता का...’’ खूब मार-पीटकर उन दोनों को कमरे में बंद कर दिया और अलीगढ के बडे-बडे ताले लगा दिये एवं चाबी अपने जेब में डालकर चल दिये कि ‘देखें, आज कथा में क्या होता है।‘ उन दोनों लडकियों में से एक रतनबाई रोज सत्संग-कीर्तन के दौरान भाव भरे भजन गानेवाले नरसिंह मेहता को अपने हाथों से पानी का गिलास भरकर होठों तक ले जाती थी । लोगों ने रतनबाई का भाव एवं नरसिंह मेहता की भक्ति नहीं देखी लेकिन पानी पिलाने की बाह्य क्रिया को देखकर उलटा अर्थ लगा लिया।
सरपंच ने घोषित कर दिया : ‘‘आज से नरसिंह मेहता गाँव के चौराहे पर ही भजन करेंगे, घर पर नहीं।“
नरसिंह मेहता ने चौराहे पर भजन किया । विवादित बात छिड गई थी अतः भीड बढ गयी थी। रात्रि के १२ बजे। नरसिंह मेहता रोज पानी पीते थे, उसी समय उन्हें प्यास लगी।
इधर रतनबाई को भी याद आया कि : ‘गुरुजी को प्यास लगी होगी । कौन पानी पिलायेगा ?’ रतनबाई ने बंद कमरे में ही मटके में से प्याला भरकर, भावपूर्ण हृदय से आँखें बंद करके मन-ही-मन प्याला गुरुजी के होठों पर लगाया ।
जहाँ नरसिंह मेहता कीर्तन-सत्संग कर रहे थे वहाँ लोगों को रतनबाई पानी पिलाती हुई नजर आयी । लडकी का बाप एवं भाई दोनों आश्चर्यचकित हो उठे कि : ‘रतनबाई इधर कैसे !‘
वास्तव में तो रतनबाई अपने कमरे में ही थी। पानी का प्याला भरकर भावना से पिला रही थी, लेकिन उसकी भाव की एकाकारता इतनी सघन हो गयी कि वह चौराहे के बीच लोगों को दिखी।
अतः मानना पडता है कि जहाँ आदमी का मन अत्यंत एकाकार हो जाता है, उसका शरीर दूसरी जगह होते हुए भी वहाँ दिख जाता है।
रतनबाई के बाप ने पुत्र से पूछा : ‘‘रतन इधर कैसे ?’’
रतनबाई के भाई ने कहा : ‘‘पिताजी ! चाबी तो मेरी जेब में है !’’
दोनों भागे घर पर । ताला खोलकर देखा तो रतनबाई कमरे के अंदर ही है और उसके हाथ में प्याला है!
रतनबाई की मुद्रा पानी पिलाने के भाव में है। दोनों आश्चर्यचकित हो उठे कि यह कैसे !
संत एवं समाज के बीच सदा से ऐसा ही चलता आया है। कुछ असामाजिक तत्त्व संत एवं संत के प्यारों को बदनाम करने की कोई भी कसर बाकी नहीं रखते।
किन्तु संत-महापुरुषों के सच्चे भक्त उन सब बदनामियों की परवाह नहीं करते, वरन् वे तो लगे ही रहते हैं संतों के दैवी कार्यों में।
ठीक ही कहा है :
इल्जाम लगानेवालों ने
इल्जाम लगाये लाख मगर।
तेरी सौगात समझकर के
हम सिर पे उठाये जाते हैं।।


****** संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग से

Sunday, 17 July 2016

MOTHER PARVATI - माता पार्वती


माता पार्वती की गुरु नारद के वचनो में ढृढ निष्ठा



माता पार्वती ने नारद मुनि को गुरु बनाकर शिव जी को पति रूप में पाने के लिए मंत्र लिया और जप करने लगी | उनके घोर तप से तीनों लोक डगमगाने लगे |
ब्रह्मा, विष्णु और सारे ऋषि, मुनि, देवता भगवान शिव के पास गए | उन्हें सारी बात कह सुनाई और बताया की माता सती ने पार्वती रूप में अवतार लिया है और आपको पाने के घोर तप कर रही हैं |
भगवान शिव ने सप्तर्षियों को परीक्षा लेने के लिए भेजा |सप्तर्षियों ने जाकर उनके घोर तप की प्रसंसा की और कहा आप कहाँ शंकर भगवान को पाने के चक्कर में पड़ गयी | वो तो अड़भंगी हैं | उनके पास न तो घर है, न ही वो अच्छे कपडे पहनते हैं | स्मशान की रख लपेटे रहते हैं | आपके लिए ब्रह्मा या विष्णु सही रहेंगे आदि | ऐसे भगवान शंकर की तमाम बुराईयाँ कह सुनाई |
माता पार्वती ने आदर से कहा | आप ऋषियों ने भला किया जो यहाँ आकर दर्शन दिया | पर आप लोग बाद में आये | मेरे गुरु नारद जी ने मुझे जो मंत्र दिया और बात बतायी उसमे मुझे अडिग निष्ठा है | आप लोग पहले मिले होते तो बात अलग होती पर अब ये जीवन तो मैं अपने गुरु नारद के दिए हुए ज्ञान के साथ ही बताउंगी और शिव जी को पाने के लिए तप करुँगी |
सप्तर्षियों ने शिवजी को जाकर सब बात कह सुनाई और शिवजी पार्वती माता की गुरुनिष्ठा और शिव चरणो में प्रेम जानकर अत्यंत प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए |
इस प्रकार शिव पार्वती विवाह सम्पन्न हुआ |
पुराणों में उसके बाद के वर्णनों में जब भी नारद मुनि शिवजी से मिलने जाते हैं | वो शिव पार्वती को प्रणाम करते हैं तो माता पार्वती भी उनका गुरु कहकर सम्मान करती हैं |
उन्हें ऊँचे स्थान पर आसान देकर उनका आदर सत्कार करती हैं |

पुराणों में इसलिए कहा है "गुरु निष्ठा परम तपः अर्थात गुरु में एकनिष्ठ प्रीति होना परम तप करने के समान ही है"

* * * * *


Saturday, 16 July 2016

GURUBHAKT AARUNI - गुरुभक्त आरुणी



गुरुभक्त आरुणी 


यह महर्षि आयोदधौम्य का आश्रम है। पूरे आश्रम में म‍हर्षि की मंत्र वाणी गूंजती रहती है। गुरुजी प्रात: 4 बजे उठकर गंगा स्नान करके लौटते, तब तक शिष्यगण भी नहा-धोकर बगीची से फूल तोड़कर गुरु को प्रणाम कर उपस्थित हो जाते। आश्रम, पवित्र यज्ञ धूम्र से सुगंधित रहता। आश्रम में एक तरफ बगीचा था। बगीचे के सामने झोपड़ियों में अनेक शिष्य रहते थे।
गुरु के शिष्यों में तीन‍ शिष्य बहुत प्रसिद्ध हुए। वे परम गुरु भक्त थे। उनमें बालक आरुणि भी एक था।
एक दिन की बात है सायंकाल अचानक बादलों की गर्जना सुनाई देने लगी... घड़ड़ड़... घड़ड़ड़...।
गुरुजी ने आकाश की ओर देखा- अरे! वर्षा का मौसम तो बीत गया। अब अचानक उमड़-घुमड़कर बादल क्यों छा रहे हैं। लगता है वर्षा होगी।
तभी बड़ी-बड़ी बूंदें बरसने लगीं। देखते ही देखते मूसलधार वर्षा शुरू हो गई।

कुछ दूर गुरुजी के खेत थे। गुरुजी ने सोचा कि कहीं अपने धान के खेत की मेड़ अधिक पानी भरने से टूट न जाए। खेतों में से सब पानी बह जाएगा। मिट्टी कट जाएगी।
उन्होंने आवाज दी....
बेटा आरुणि! वर्षा हो रही है। तुम खेत पर जाओ और देखो, कहीं मेड़ टूटकर खेत का पानी निकल न जाए।
गुरु का आदेश पाकर आरुणि चल पड़ा खेत की ओर।
आरुणि भीगता हुआ भी दौड़ा जा रहा था। गुरुजी ने दूसरे शिष्यों की बजाए आरुणि को आदेश दिया इसलिए आरुणि खुशी से फूला नहीं समा रहा था।
उसके कानों में वर्षा की रिमझिम के स्थान पर गुरुजी की बताई शिक्षा गूंजने लगी-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु:
गुरुर्देवो महेश्वर:।
... हाय! यह तो सारी मेहनत ही बेकार हो गई। पानी तो ठहरता ही नहीं। क्या करूं?
मैं खुद ही क्यों नहीं टूटी मेड़ के स्थान पर सो जाऊं? हां, यही ठीक रहेगा।
और आरुणि सचमुच टूटी‍ मेड़ के स्थान पर सो गया। पानी का बहाव थम गया।
रात पड़ गई। चारों ओर अंधकार ही अंधकार। बादलों की गर्जना... घड़ड़ड़... घड़ड़ड़...।
गीदड़ों की... हुआऽऽ हुआऽऽ।
झमाझम बरसता पानी। कल-कल बहती धाराएं। सर्द हवाएं।
आरुणि का शरीर सर्दी से अकड़ने लगा किंतु उसे तो एक ही धुन... गुरु की आज्ञा का पालन। बहता हुआ पानी कल-कल करता मानो आरुणि को कहने लगा-
मैं वर्षा का बहता पानी,
मेरी चाल बड़ी तूफानी।
उठ आरुणि अपने घर जा,
रास्ता दे दे, हट जा, हट जा।।
मगर गुरु भक्त बालक आरुणि का उत्तर था-
गुरुजी का आदेश मुझे है,
मैं रोकूंगा बहती धारा।
जय गुरु देवा, जय गुरु देवा,
आज्ञा पालन काम हमारा।।
रात बीतती रही। बादल गरजते रहे। गीदड़ चीखते रहे- हुआऽऽ हुआऽऽ।
मेंढक टर्राते रहे- टर्र... टर्र... टर्र...।
एक घंटा... दो घंटे... तीन घंटे...। आरुणि रातभर खेत के सहारे सोता रहा। सर्दी में शरीर सुन्न पड़ गया। गुरुदेव के खेत से पानी बहने न पाए, इस विचार से वह न तो तनिक भी हिला और न ही उसने करवट बदली। शरीर भयंकर पीड़ा होते रहने पर भी सचमुच गुरु का स्मरण करते हुए पड़ रहा।
चिड़िया चहकने लगी। मुर्गे ने सुबह होने की सूचना दी... कुकड़ूं कूंऽऽ।
गुरुजी नहा-धोकर लौटे। सभी शिष्यगण सदैव की तरह गुरुजी को प्रणाम करने पहुंचा-
गुरुदेव प्रणाम!
प्रसन्न रहो उपमन्यु!
गुरुदेव प्रणाम!
प्रसन्न रहो बेटा वेद!
गुरु ने देखा कि आज आरुणि प्रणाम करने नहीं आया। उन्होंने दूसरे शिष्यों से पूछा- आज आरुणि नहीं दिख रहा है?
एक शिष्य ने याद दिलाया- गुरुदेव! आरुणि कल संध्या समय खेत की मेड़ बांधने गया था, तब से अब तक नहीं लौटा।
अरे हां, याद आ गया। किंतु वह लौटा क्यों नहीं? कहां रह गया? चलो पता लगाएं।
महर्षि अपने शिष्यों की टोली के साथ आरुणि को ढूंढ़ने निकल पड़े। चलते-चलते वे खेत की मेड़ की तरफ जा पहूंचे।
बेटा आरुणिऽऽ! कहां हो?
किंतु आरुणि का शरीर सर्दी से इतना अकड़ गया था कि न बोला जा रहा था, न हिल-डुल सकता था।
वह रहा। वह तो मेड़ के सहारे पानी के बहाव में मूर्छित पड़ा है- एक ने बताया।
सभी वहां पहुंचे। उन्होंने मरणासन्न आरुणि को उठाया। हाथ-पांवों की मालिश की। थोड़ी देर बाद उसे होश आ गया।
गुरुजी ने सब बातें सुनकर उसे हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद दिया- बेटा आरुणि! तुम सच्चे गुरुभक्त हो। तुम्हें सब विद्याएं अपने आप ही आ जाएंगी। जगत में आरुणि की गुरुभक्ति सदा अमर रहेगी।
सभी बालकों ने आरुणि को कंधों पर उठा लिया। घोष होने लगा।
गुरु भक्त आरुणि,
धन्य हो। धन्य हो।
गुरु भक्त आरुणि,

धन्य हो। धन्य हो।

Friday, 15 July 2016

GURU YUKTI KI MAHIMA - गुरु युक्ति की महिमा



महर्षि नारद जी की  गुरु युक्ति की महिमा





नारदजी प्रायः देवताओं की सभा में जाया करते थे और सभा समाप्त होने के पश्चात्‌ स्वर्ग से वापस आ जाते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि सभा से वापस आने के बाद नारदजी को किसी कारणवश दोबारा वहाँ जाने की आवश्यकता पड़ गयी। तब नारदजी ने देखा कि सभा के दौरान वे जिस स्थान पर वह बैठे थे उस स्थान पर गढ्ढा खोदा जा रहा है और वहाँ की मिट्टी हटायी जा रही है। यह देखकर नारदजी ने वहाँ उपस्थित देवताओं से पूछा कि आप लोग ये क्या कर रहे हैं? तब सभी देवताओं से नारदजी को कहा कि यह तो आपकी वजह से हमें रोज ही करना पड़ता है क्योंकि आप निगुरा (जिसका कोई गुरु ना हो ) हैं। अतः आपके बैठने से स्थान अपवित्र हो जाता हैं। नारद जी ने कहा कि गुरु का इतना महत्व है और मैं अब तक इस सत्य से अनभिज्ञ था। फिर उन्होंने सलाह ली कि किसे गुरु बनाया जाये? तब देवताओं ने कहा कि यह तो स्वर्ग है, सद्‌गुरु तो जीवों के कल्याण हेतु मृत्युलोक में ही निवास करते हैं। अतः तुम्हें मृत्युलोक में जाकर ही सद्‌गुरु बनाना होगा। तब नारदजी ने देवताओं से पूछा कि मैं गुरु को कैसे पहिचान पाऊँगा। तब सभी देवताओं ने कहा कि कल सुबह तुम्हें सबसे पहले जो भी व्यक्ति मिले उसी को गुरु बना लेना। नारद जी सहमत हो गये और गुरू की खोज करने मृत्युलोक में आ गये। नारदजी ने संकल्प लिया कि मुझे प्रभातकाल में जो सर्वप्रथम मिलेगा उसको मैं गुरू मानूँगा। प्रातःकाल में सरिता के तीर पर गये। नारदजी ने देखा कि एक आदमी स्नान करके आ रहा है। नारद जी ने मन ही मन उसको गुरू मान लिया। नजदीक पहुँचे तो पता चला कि वह धीवर (मछ्ली पकड़ने वाला) है, हिंसक है (हालाँकि श्रीसद्‌गुरुदेवजी स्वयं ही वह रूप लेकर आये थे)। नारदजी ने उसे सारी कथा व अपने संकल्प के बारे में बताया और हाथ जोड़कर कहा कि "हे मल्लाह ! मैंने तुमको गुरू मान लिया है।"
मल्लाह ने कहा - हम नहीं जानते गुरू क्या होता है ? हमें तो गुरू का मतलब भी नहीं मालूम है। मुझे जाने दो, मैं यह सब कुछ नहीं जानता हूँ।
नारदजी ने मल्लाह के पैर पकड़ लिये और बोले "गु अर्थात्‌ अन्धकार और रू अर्थात्‌ प्रकाश। जो अज्ञानरूपी अन्धकार को हटाकर ज्ञानरूपी प्रकाश कर दें उन्हें गुरू कहा जाता है। आप मेरे आन्तरिक जीवन के गुरू हैं।" ‍
"छोड़ो मुझे !" मल्लाह बोला।
नारदजी ने कहा- "आप मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लो गुरूदेव!"
मल्लाह ने जान छुड़ाने के लिए कहाः "अच्छा, स्वीकार किया, अब जा।"
नारदजी फिर स्वर्ग आ गये। सभी देवी-देवताओं ने नारदजी को देखा और पूछा कि-
"नारदजी ! क्या आपको गुरु मिल गये? अब आप निगुरा तो नहीं हैं ?"
नारदजी को सकुचाते हुये बताना पड़ा कि गुरु तो बना लिया लेकिन.........(वह धीवर है )।
अभी वह लेकिन.... ही कह पाये थे कि सब देवताओं ने कहा, नारद जी तुमने अनर्थ कर दिया, गुरु में लेकिन...... लगाने से अब तुम्हें लख चौरासी भोगनी होगी, आपको चौरासी लाख जन्मों तक माता के गर्भों में नर्क भोगना पड़ेगा। गुरु जैसा भी हो, उसमें लेकिन किन्तु परन्तु नहीं करते।
नारद रोये, छटपटाये किन्तु सभी देवताओं ने कहाः "इसका इलाज स्वर्ग में नहीं है। स्वर्ग तो पुण्यों का फल भोगने की जगह और नर्क पाप का फल भोगने की जगह है। कर्मों से छूटने की जगह तो केवल गुरूओं के पास वहीं मृत्युलोक में हैं ।"
नारदजी मृत्युलोक आये और उस मल्लाह के पैर पकड़ कर बोले- "गुरूदेव ! उपाय बताओ। चौरासी के चक्कर से छूटने का उपाय बताओ।"
गुरूजी ने पूरी बात जान ली और कुछ संकेत दिये। नारद उनसे मुक्ति की युक्ति पाकर सीधे वैकुण्ठ आ गये। गुरु के बताये अनुसार नारद विष्णुजी के पास पहुँचे और बोले कि भगवान्‌ ये लख चौरासी बार-बार सुनी है, ये होती क्या है? भगवान्‌ उनको समझाने लगे और नारद गुरु के बताये अनुसार सब समझते हुये भी न समझने का नाटक करते रहे और अंत में बोले, प्रभो! यह लख चौरासी मुझे ठीक से समझ नहीं आ रही है अतः ठीक से समझाने के लिये आप चित्र बनाकर दिखा दें। भगवान्‌ ने जमीन पर लख चौरासी का चित्र बना दिया और नारद ने गुरु के बताये अनुसार चित्र पर लोटपोट कर चित्र मिटा दिया।
भगवान्‌ ने कहा कि- नारद ये क्या कर रहे हो?
नारद ने कहा कि- भगवान! वह चौरासी भी आपकी बनाई हुई है और यह चौरासी भी आपकी ही बनायी हुई है। मैं इसी में चक्कर लगाकर अपनी चौरासी पूरी कर रहा हूँ, जो गुरु के प्रति नीचा भाव रखने से बन गयी थी।

भगवान ने कहाः "महापुरूषों के नुस्खे भी लाजवाब होते हैं। यह युक्ति भी तुझे उन्हीं से मिली नारद। महापुरूषों के नुस्खे लेकर जीव अपने अतृप्त हृदय में तृप्ति पाता है। अशान्त हृदय में परमात्म शान्ति पाता है। अज्ञान तिमिर से घेरे हुए हृदय में आत्मज्ञान का प्रकाश पाता है।"


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SABARI KI GURU BHAKTI - शबरी की गुरुभक्ति


शबरी भीलनी की गुरुभक्ति

SABARI

शबरी भीलनी का नाम हम सभी जानते हैं । यह शबरी भीलनी पूर्वजन्म में महारानी थीं । एक बार वे राजा के साथ कहीं यात्रा पर गयी थीं । वहाँ से वापस लौटते वक्त रास्ते में उन्होंने एक गाँव की चौपाल पर, एक चबूतरे पर बैठकर किसी संतपुरुष को सत्संग करते देखा । गाँव के कुछ लोग वहाँ बैठकर उनका सत्संग सुन रहे थे ।
महारानी ने राजा से कहा : ‘‘यात्रा में मंदिर के भगवान के दर्शन तो किये, किन्तु जिन संत के हृदय में से भगवान बोलते हैं उन भगवान की वाणी भी सुनते जायें ।"
राजा : ‘‘अब ये सब चर्चाएँ छोडकर आप रथ खडारखिये । आज निर्जला ग्यारस है और सत्संग के दो वचन सुनने का मौका मिला है तो उसका लाभ ले लें । किन्तु राजा को यह अच्छा न लगा । उसने रानी की बात न मानी और रथ को आगे चलाने की आज्ञा दे दी । जिसकी बुद्धि सात्त्विक नहीं होती उसे अच्छी बातें नहीं सूझती ।जिसको शराब पीने की अथवा अन्य कोई खराब आदत पड गयी हो उसकी बुद्धि तो इतनी स्थूल हो जाती है कि यदि दूसरा कोई अच्छी बात समझाये तो भी उसकी समझ में नहीं आती और यदि थोडी समझ में आ भी जाये तो उसके अनुसार कर नहीं सकता । महारानी को हुआ कि ‘जो संतपुरुषों के सत्संग और दर्शन से वंचित रखे ऐसा रानी का पद किस काम का है ? ऐसा महारानी का पद मुझे नहीं चाहिए । ऐसे हीरे-जवाहरात और शृंगार मुझे नहीं चाहिए।´
मीराबाई भी कहती थी कि :
हुँ तो नहीं जाऊँ सासरिये मोरी मा, मारुं मन लाग्युं फकीरीमां ।
मोती ओनी माळा मारे शा कामनी, हुं तो तुलसनीनी कंठी पहेरुं मोरी मा ।
मारुं मन...
महेल अने माळियां मारे नहीं जोईए,
हुं तो जंगलनी झूंपडीमां रहुँ मोरी मा ।
मारुं मन...
अर्थात् ‘हे माँ ! मैं तो ससुराल नहीं जाऊँगी । मुझे मोतियों की माला से क्या काम ? मैं तो तुलसी की माला पहनूँगी । बडे-बडे महल मुझे नहीं चाहिए । मैं तो जगंल की झोंपडी में रह लूँगी । किन्तु ससुराल नहीं जाऊँगी क्योंकि मेरा मन तो फकीरी में लगा हुआ है ।´
महारानी ने प्रभु से प्रार्थना की कि, ‘‘हे प्रभु ! मेरा दूसरा जन्म हो तो ऐसा जुलम न हो, ऐसी तू दया करना । हीरे और मोती पहनूँ किन्तु अपनी काया का कल्याण न कर सकूँ, आत्मा की उन्नति न कर सकूँ तो मेरा जीवन व्यर्थ है । हे प्रभु ! मुझे दूसरा जन्म भले किसी साधारण भील के घर मिले, भले मैं भीलनी कहलाऊँ किन्तु गुरु के द्वार पर जाकर तेरा भजन करूँ और तुझे पाने का यत्न दूसरा जन्म भले किसी साधारण भील के घर मिले, भले मैं भीलनी कहलाऊँ किन्तु गुरु के द्वार पर जाकर तेरा भजन करूँ और तुझे पाने का यत्न कर सकूँ, ऐसी दया करना ।"
वही महारानी दूसरे जन्म में शबरी भीलनी हुई । मतंग ऋषि के आश्रम में रहकर सेवा करने लगी । शबरी आश्रम को झाड-बुहार कर स्वच्छ करती,पेड-पौधों में पानी सींचती और दूसरी भी कई छोटी-बडी सेवायें करती एवं हरि का स्मरण करती । गुरु ने उससे कहा था कि ‘एक दिन राम अवश्य यहाँ आयेंगे ।´ तब से वह बडे धैर्य एवं प्रेम से राम के आने की राह देखती ।
सरोवर कांठे शबरी बेठी...
सरोवर कांठे भीलण बेठी...
धरे रामनुं ध्यान ।
एक दिन आवशे स्वामी मारा
अंतरना आराम...
राम-राम रटतां शबरी बेठी...
हैये राखी हाम ।
गुरुनां वचनो माथे राखी...
ऋषिनां वचनो माथे राखी...
हैये धरती ध्यान ।
राम राम रटतां शबरी बैठी...
हैये राखी हाम ।
कभी वह सरोवर के किनारे बैठकर ध्यान करती तो कभी किसी वृक्ष पर चढकर राम के आने की राह देखती । शाम को वृक्ष से थोडी आशा-निराशा के साथ नीचे उतरती किन्तु हतोत्साहित न होती ।
संसार से विदा लेते समय गुरुजी ने कहा था कि, ‘शबरी ! एक दिन राम जरूर यहाँ आयेंगे ।´ अतः गुरु के वचनों को शबरी ने सिर-माथे पर रखा है । अविश्वास के साथ पूछा नहीं कि ‘कब आयेंगे ? आयेंगे कि नहीं ? सत्य कहते हैं कि असत्य ?...´ उसे तो ‘राम अवश्य आयेंगे´ ऐसा विश्वास है ।
महारानी में से शबरी भीलनी बनी उस शबरी की आत्मा कितनी दिव्य होगी और श्रीराम के दर्शन की कैसी तत्परता होगी !
रोज आश्रम की सफाई करे, नये फल-फूल तैयार करे और श्रीराम के आने की राह देखे । अत्यंत सादा एवं सात्त्विक जीवन जिये और श्रीराम के दर्शन की आतुरता में अपना दिन बिताये । यही उसका जीवनक्रम हो गया ।
जब श्रीरामजी ने कबंध राक्षस के पास से शबरी के विषय में सुना तब वे सीता को ढूँढना भूल गये और उन्हें शबरी के आँगन में पहुँचने की आतुरता हो उठी ।
राम और भरत का भा्रतृप्रेम विख्यात है किन्तु शबरी ने प्रेम की एक नवीन ध्वजा फहरायी है । प्रेम तो स्वतंत्र है । प्रेम यदि खून के संबंध में रुक जाता है तो मोह कहलाता है और रूपयों के संबंध में अटक जाता है तो लोभ कहलाता है । किन्तु केवल प्रेम के लिए ही प्रेम होता है तब परमात्मा प्रकट हो जाता है ।
शबरी के प्रेम के कारण राम का प्रेम जाग्रत हुआ है । श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा : ‘‘अब सीता की खोज फिर करेंगे । पहले तो मुझे शबरी के प्रांगण में जाना है ।"
श्रीरामचंद्रजी को जो कोई भी मिले उससे शबरी का पता पूछते-पूछते पगडण्डियों पर से शबरी के द्वार की ओर जा रहे हैं । इधर शबरी ने पेड के ऊपर से दूर तक दृष्टि डालकर देखा तो तीर-कमान के साथ आते हुये श्रीराम-लक्ष्मण दिखे । तब उसे लगा कि ‘निश्चय ही ये दोनों भाई मेरे राम-लखन ही होंगे ।´
उसे भावसमाधि लग गयी । आज तक तो वह डालियाँ पकडकर नीचे उतरती थी । आज मानो वृक्ष उसे पकडकर नीचे उतार रहा हो, ऐसा लगा । योगियों का कहना है कि जब तुम्हारी भावसमाधि लगती है तब तुम्हारे प्राण ऊध्र्वगामी हो जाते हैं । तुम्हारी आँख बन्द हो और तुम कहीं ऊँचाई से गिर पडो तो भी तुम्हारे शरीर को चोट नहीं लगती ।
एकबार बुद्ध भगवान किसी पर्वत पर बैठे थे और एक बडी शिला पर्वत पर से लुढकती-लुढकती आयी । बुद्ध जहाँ बैठे थे वहाँ से थो‹डी दूर के अंतराल से शिला के दो टुकडे हो गये । एक टुकडा दायीं ओर गिरा एवं दूसरा बायीं ओर । केवल एक छोटा-सा कंकर बुद्ध के पैर में लग गया । शिष्यों द्वारा उस विषय में पूछने पर बुद्ध ने कहा : ‘‘मेरी ध्यान की तल्लीनता में जरा-सी कमी रह गयी होगी तभी यह छोटा-सा कंकर पैर में लगा, अन्यथा यह भी न लगता ।"
तुम जितने अंश में ईश्वर में तल्लीन होगे उतने ही अंश में तुम्हारे विघ्न और परेशानियाँ अपने-आप दूर हो जायेंगी और जितने तुम अहंकार में डूबे रहोगे उतने ही दुःख, विघ्न और परेशानियाँ बढती जायेंगी । शबरी पेड पर से नीचे उतरी । उसने श्रीराम की चरणवंदना कर के प्रार्थना की : ‘‘हे प्रभु ! मेरा आँगन पावन कीजिये ।"
श्रीराम ने कहा : ‘‘शबरी ! मेरे आने में विलम्ब हुआ है, मुझे क्षमा करना ।"
शबरी के पवित्र प्रेम के कारण प्रभु ने क्षमा माँगी है । प्रेम एकांगी नहीं हो सकता वरन् परस्पर होता है । जिस व्यक्ति को तुम प्रेम करते हो, उसके हृदय में तुम्हारे लिए नफरत ही पैदा होगी । जिसके लिए तुम बुरा चाहोगे, उसके मन में भी तुम्हारे लिए बुरे भाव ही आयेंगे और जिसके लिए तुम अच्छाई चाहोगे उसके मन में भी तुम्हारे लिए अच्छे विचार आयेंगे, आयेंगे और आयेंगे ही ।
शबरी ने भगवान की आतुरतापूर्वक राह देखी और रामजी आये । शबरी ने श्रीरामजी का पूजन किया और रोज की तरह जो फल, फूल कंदमूल श्रीरामजी के लिए संभालकर रखे थे वे श्रीरामजी को दिये । उसने झूठे बेर तक श्रीरामजी को खाने के लिए दिये ।
श्रीरामजी को उस प्रेम की मधुरता का ऐसा स्वाद लगा कि सीताजी की सेवा और कौशल्याजी का वात्सल्य भरा भोजन तक वे भूल गये ।
श्रीरामजी ने लक्ष्मण से कहा : ‘‘लक्ष्मण ! आज तक भोजन तो बहुत किया किन्तु ऐसा भोजन तो कभी मिला ही नहीं ।"
श्रीकृष्ण तो लीला करते हैं किन्तु श्रीरामजी विनोद में भी झूठ नहीं बोलते । लक्ष्मणजी ने श्रीराम की ओर देखा एवं ‘यह तो भीलनी के झूठे बेर हैं´ ऐसा भाव उनके मन में आया । श्रीरामजी को हुआ कि इस प्रेमसरिता के पावन आचमन के बिना, इस पवित्र आचमन के बिना, इस पवित्र प्रसाद को लिये बिना लक्ष्मण रह जायेगा । अतः श्रीराम ने एक मुट्ठी भरकर बेर लक्ष्मणजी को दिये और कहा : ‘‘लक्ष्मण ! ये बेर तुम खा लो । देखो, कितने मीठे हैं ।"
लक्ष्मणजी ने श्रीराम की आज्ञा मानी और बेर खाये । लक्ष्मण और श्रीरामजी शबरी को देखते हैं, उसकी झोंपडी को देखते हैं । लक्ष्मण को तो शबरी का एवं झोंपडी का बाह्य आकार दिखता है किन्तु श्रीरामजी को तो शबरी में अपना स्वरूप ही दिखता है क्योंकि श्रीराम की दृष्टि ज्ञानमयी है । लक्ष्मणजी ने शबरी से पूछा : ‘‘इस घोर अरण्य में तुम अकेली रहती हो ? मतंग ऋषि का देहावसान हुये तो काफी समय हो चुका है ।"
शबरी ने कहा : ‘‘मैं अकेली नहीं रहती हूँ । यहाँ आश्रम में हिरण हैं, मोर हैं और सर्प भी विचरण करते हैं । उनके रूपों में मेरे श्रीराम ही हैं । उनके रूपों में जब श्रीराम ही हैं । उनके रूपों में जब श्रीराम मेरे साथ हैं तो मैं अकेली कैसे कहलाऊँ ? एक ही राम सबमें बस रहे हैं तो डर किसका और डर किससे हो ?"
शबरी की भक्ति अब वेदांत में पलटी है । सेवा अब सत्य में पलटी है । वही बुद्धि अब ऋतम्भरा प्रज्ञा में पलटी है । ज्ञानी गुरु की सेवा फली है । श्रीराम और शबरी का वार्तालाप हुआ है जिसे लक्ष्मण ने सुना । तब उन्हें लगा कि भरत मिलन तो मैंने देखा है किन्तु यह शबरी मिलन तो उसकी अपेक्षा भी अनोखा है ।
भरतजी का तो आग्रह था, प्रार्थना थी कि ‘श्रीराम ! आप अयोध्या चलिये ।´ शबरी की तो कोई प्रार्थना नहीं है । वह रहने के लिए भी नहीं कहती है और कहीं जाने के लिए भी नहीं कहती है । अब शबरी, शबरी नहीं रही और श्रीराम, श्रीराम नहीं रहे, दोनों एक हो गये हैं । जैसे एक कमरे में दो दियों का प्रकाश हो तो किस दिये का कौन-सा प्रकाश है ? यह पहचानना और उसे अलग करना संभव नहीं है । ऐसा ही शबरी एवं श्रीराम का प्रेम-प्रकाश है और दोनों के प्रकाशपुंज में लक्षमणजी नहा रहे हैं । कुछ समय पश्चात् शबरी श्रीराम एवं लक्ष्मणजी को आश्रम बताने के लिए ले गयी और ‘यहाँ मेरे गुरुदेव रहते थे, यहाँ मेरे गुरुदेव ने तपस्या की थी, यहाँ मेरे गुरुभाई रहते थे, ऐसा कहकर सब स्थान बताये । घूमते-घामते एक जगह लक्ष्मणजी को रस्सी पर किसी साधु पुरुष के कपडे सूखते हुये दिखे । मानो अभी-अभी स्नान करके किसीने कपडे सुखाने के लिए डाले हों, ऐसे गीले कपडे देखकर लक्ष्मणजी को आश्चर्य हुआ कि शबरी अकेली रहती है और यहाँ पर ये धोती, लंगोटी आदि किसी साधु पुरुष के कपडे कैसे सूख रहे हैं ? श्रीलक्ष्मणजी के संदेह को निवृत्त करने के लिए श्रीरामजी ने कहा : ‘‘शबरी के गुरुदेव स्नान करके ध्यान में बैठे और ध्यान में ही महासमाधि को प्राप्त हो गये । वर्षों बीत जाने पर भी शबरी को ऐसा ही लगता है कि उसके गुरुजी यहीं हैं । शबरी के मन की भावना के कारण हवा एवं सूर्य की किरणों ने अपना स्वभाव बाधित किया है कपडे अभी तक वैसे के वैसे ही हैं ।"
इस बात को सुनकर शबरी को पूर्वस्मृति ताजी हो उठी । ‘शबरी ! तुम्हारे द्वार पर श्रीराम आयेंगे ।´ गुरु का वचन याद आ गया । श्रीराम आये, साकार राम के तो दर्शन हुये ही, साथ ही साथ रामतत्त्व में विश्रांति भी मिली । शबरी का संकल्प पूरा हुआ । रस्सी पर के गीले कपडों पर जो भावना थी वह विलीन हो गयी । थोडी तात्त्विक चर्चा हुई । इतने में तो कपडे सूखकर नीचे गिर पडे । ‘ओह... गुरुदेव ! आपने अपनी नश्वर देह छोड दी ! अब मुझे भी आपके चिदाकाश स्वरूप में ही विलीन होना है । शबरी का मस्तक श्रीरामजी के चरणों में गिर पडा । श्रीराम-लखन के पावन हाथों से शबरी की अंत्येष्टि हुई ।
धन्य है शबरी की गुरुभक्ति !

***** पूज्य बापूजी के सत्संग से


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