Wednesday, 26 September 2018

मंत्र सिद्धि के सूत्र





ऋषिकेश से दूर जंगल में एक योगी रहते थे। वहां उस समय मात्र ५-७ लोग ही थे। जंगल होने के कारण शेर, भालू और हाथी प्राय: आ जाते थे। एक शिष्य योगाभ्यासी प्रति दिन सूर्योदय के पहले ही गुरूजी के नदी में स्नान करने के पहले एक पेड़ से दातुन तोड़ कर मुंह धो लेते थे। योगी काफी वृद्ध हो चले थे।
शिष्य गुरूजी के दातुन के लिए वृक्ष पर चढ़ने लगे। उस पेड़ पर एक मधुमख्खी का छत्ता था। शिष्य ने चिल्ला कर गुरूजी को पेड़ से दूर जाने का आग्रह करते हुए कहा की दूर चले जाइये, नहीं तो मखियाँ काटेंगी। दूर जाना तो दूर रहा योगी मख्खी के पास जा कर कुछ बोलने लगे। शिष्य दातुन तोड़ कर पास आया, देखा की मख्खियाँ शांत हो कर दूर चली गयी थी।
शिष्य ने पूछा की गुरूजी आप मधुमख्खियों से कैसे बच गएँ। कौन सा मन्त्र आपने पढ़ा। मुझे भी बताईए।
गुरूजी बोलें की पेड़ पर चढो और चढते रहो फिर मंत्रोंपदेश करूँगा। तब शिष्य पेढ पर चढने लगा। गुरूजी ने मंत्रोपदेश देना प्रारंभ करने लगे. . .  ” अंतरात्मा से में योग क्रिया कर रहा हूँ, हे मधुमखियौं मैं तुम्हारा कोई अहित नहीं करूँगा। तूम भी मेरा अपकार नहीं करना।”  
शिष्य ने कहा की यह तो मन्त्र नहीं है। गुरूजी ने कहा कि तुम निष्कपट यह बात मधुमख्खियों से धीरे से बोलो। हृदय की भाषा वे समझतीं है। केवल दिल खोल कर वार्तालाप करो।
शिष्य ने ऐसा ही किया. . .  आश्चर्य की मधुमखियों ने उसकी भाषा को समझते हुए कोई अपकार नहीं किया, शांत थीं।
उनके तथा हमारे में एक ही आत्मा का निवास है, इसे जानना चाहिए। भलाई की बात सोचना ही महा मन्त्र है। नकारात्मक सोच हम न सोचें, तो सदैव हमारा मन्त्र फलीभूत होगा।

इसी प्रकार के मंत्रोच्चारण से दैव उपासना करने का प्रयत्न प्रत्येक साधक को करना चाहिए।






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Sunday, 23 September 2018

interview





      बेटा तुम्हारा इन्टरव्यू लैटर आया है। मां ने लिफाफा हाथ में देते हुए कहा।

       यह मेरा सातवां इन्टरव्यू था। मैं जल्दी से तैयार होकर दिए गए नियत समय 9:00 बजे पहुंच गया। एक घर में ही बनाए गए ऑफिस का गेट खुला ही पड़ा था मैंने बन्द किया भीतर गया।

       सामने बने कमरे में जाने से पहले ही मुझे माँ की कही बात याद आ गई बेटा भीतर आने से पहले पांव झाड़ लिया करो।फुट मैट थोड़ा आगे खिसका हुआ था मैंने सही जगह पर रखा पांव पोंछे और भीतर गया।

        एक रिसेप्शनिस्ट बैठी हुई थी अपना इंटरव्यू लेटर उसे दिखाया तो उसने सामने सोफे पर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा। मैं सोफे पर बैठ गया, उसके तीनों कुशन अस्त व्यस्त पड़े थे आदत के अनुसार उन्हें ठीक किया, कमरे को सुंदर दिखाने के लिए खिड़की में कुछ गमलों में छोटे छोटे पौधे लगे हुए थे उन्हें देखने लगा एक गमला कुछ टेढ़ा रखा था, जो गिर भी सकता था माँ की व्यवस्थित रहने की आदत मुझे यहां भी आ याद आ गई,  धीरे से उठा उस गमले को ठीक किया।

        तभी रिसेप्शनिस्ट ने सीढ़ियों से ऊपर जाने का इशारा किया और कहा तीन नंबर कमरे में आपका इंटरव्यू है।

       मैं सीढ़ियां चढ़ने लगा देखा दिन में भी दोनों लाइट जल रही है ऊपर चढ़कर मैंने दोनों लाइट को बंद कर दिया तीन नंबर कमरे में गया ।

        वहां दो लोग बैठे थे उन्होंने मुझे सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और पूछा तो आप कब ज्वाइन करेंगे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जी मैं कुछ समझा नहीं इंटरव्यू तो आप ने लिया ही नहीं।

       इसमें समझने की क्या बात है हम पूछ रहे हैं कि आप कब ज्वाइन करेंगे ? वह तो आप जब कहेंगे मैं ज्वाइन कर लूंगा लेकिन आपने मेरा इंटरव्यू कब लिया वे दोनों सज्जन हंसने लगे।

       उन्होंने बताया जब से तुम इस भवन में आए हो तब से तुम्हारा इंटरव्यू चल रहा है, यदि तुम दरवाजा बंद नहीं करते तो तुम्हारे 20 नंबर कम हो जाते हैं यदि तुम फुटमेट ठीक नहीं रखते और बिना पांव पौंछे आ जाते तो फिर 20 नंबर कम हो जाते, इसी तरह जब तुमने सोफे पर बैठकर उस पर रखे कुशन को व्यवस्थित किया उसके भी 20 नम्बर थे और गमले को जो तुमने ठीक किया वह भी तुम्हारे इंटरव्यू का हिस्सा था अंतिम प्रश्न के रूप में सीढ़ियों की दोनों लाइट जलाकर छोड़ी गई थी और तुमने बंद कर दी तब निश्चय हो गया कि तुम हर काम को व्यवस्थित तरीके से करते हो और इस जॉब के लिए सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हो, बाहर रिसेप्शनिस्ट से अपना नियुक्ति पत्र ले लो और कल से काम पर लग जाओ।

       मुझे रह रह कर माँऔर बाबूजी की यह छोटी-छोटी सीखें जो उस समय बहुत बुरी लगती थी याद आ रही थी।

       मैं जल्दी से घर गया मां के और बाऊजी के पांव छुए और अपने इस अनूठे इंटरव्यू का पूरा विवरण सुनाया. 

        इसीलिए कहते हैं कि व्यक्ति की प्रथम पाठशाला घर और प्रथम गुरु माता पिता ही है।




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ref :an edited whatsapp post

Wednesday, 19 September 2018

सत्संग का असर



 

  • सत्संग का असर क्यों नहीं होता ?
  • शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरु जी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि सत्संग का असर क्यों नहीं होता  मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।

           गुरु समयज्ञ थे,
           बोले- वत्स! जाओ, एक घडा मदिरा ले आओ।
          शिष्य मदिरा का नाम सुनते ही आवाक् रह गया।
          गुरू और शराब!
          वह सोचता ही रह गया।
          गुरू ने कहा सोचते क्या हो?  जाओ एक घडा मदिरा ले आओ। वह गया और एक छला छल भरा मदिरा का घडा ले आया।
          गुरु के समक्ष रख बोला-
          “आज्ञा का पालन कर लिया
         गुरु बोले –
         “यह सारी मदिरा  पी लो”
         शिष्य अचंभित,
        गुरुने कहा
         शिष्य!  एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शीघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
         शिष्य ने वही किया,
         शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया।
         आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
         “तुझे नशा आया या नहीं?”
           पूछा गुरु ने।
          गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहीं आया।
          अरे मदिरा का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहीं चढा?
          गुरुदेव नशा तो तब आता जब मदिरा गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई फ़िर नशा कैसे चढता
          बस फिर सत्संग को भी उपर उपर से जान लेते हो, सुन लेते हों गले के नीचे तो उतरता ही नहीं, व्यवहार में आता नहीं तो प्रभाव कैसे पडे
        गुरु के वचन को केवल कानों से नही, मन की गहराई से सुनना, एक-एक वचन को ह्रदय में उतारना और            उस पर आचरण करना ही, गुरु के वचनो का सम्मान है ।
         पांच पहर धंधा किया,
         तीन पहर गए सोए ।
एक घड़ी ना सत्संग किया,
तो मुक्ति कहाँ से होए।।





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Wednesday, 12 September 2018

वेश्या और भिक्षु





-एक वेश्या ने भिक्षु को रोका, निमंत्रण दिया, कि मेरे घर रुक जाओ वर्षाकाल में। 

                     - उस भिक्षु ने कहा, 'रुकने में मुझे जरा अड़चन नहीं है,... यह बात अलग ! फिर भविष्यवाणी मुश्किल है।' उसने कहा, 'रुकने में मुझे जरा अड़चन नहीं, लेकिन जिस से दीक्षा ली है, उस गुरु से जरा पूछ आऊं। ऐसे वह मना भी नहीं करेंगे, उसका पक्का भरोसा है। लेकिन उपचारवश ! सिर्फ औपचारिक है।
क्योंकि मैं गुरु का शिष्य हूं। बुद्ध गांव के बाहर ही हैं, अभी पूछकर आ जाता हूं।'
                       - वेश्या भी थोड़ी चिंतित हुई होगी। कैसा भिक्षु ! इतनी जल्दी राजी हुआ?
                       - वह भिक्षु गया। उसने बुद्ध से कहा कि 'सुनिए, एक आमंत्रण मिला है एक वेश्या का, वर्षाकाल उसके घर रहने के लिए। जो आज्ञा आपकी हो, वैसा करूं।'
                      - बुद्ध ने कहा, 'तू जा सकता है। निमंत्रण को ठुकराना उचित नहीं।'
सनसनी फैल गई भिक्षुओं में। दस हजार भिक्षु थे, ईष्या से भर गए।
                       लगा कि सौभाग्यशाली है। तो वेश्या ने निमंत्रण दिया वर्षाकाल का। और हद्द हो गई बुद्ध की भी कि उसे स्वीकार भी कर लिया और आज्ञा भी दे दी। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि 'रुकें ! इससे गलत नियम प्रचलित हो जाएगा। भिक्षुओं को वेश्याएं निमंत्रित करने लगें, और भिक्षु उनके घर रहने लगें, भ्रष्टाचार फैलेगा। यह नहीं होना चाहिए।'
                        - बुद्ध ने कहा, 'अगर तुझे निमंत्रण मिले, और तू ठहरे तो भ्रष्टाचार फैलेगा। तू ठहरने को कितना आतुर मालूम होता है! कह तू उलटी बात रहा है। अगर तुझे निमंत्रण मिले और तू पूछने आए...पहली तो बात तू पूछने आएगा नहीं, क्योंकि तू डरेगा। यह पूछने आया ही इसीलिए है कि कोई भय नहीं है। तू आएगा नहीं पूछने। अगर तू पूछने भी आएगा, तो मैं तुझे हां न भरूंगा। और तू भयभीत मत हो।
                        मुझे पता है यह आदमी अगर वेश्या के घर में ठहरेगा, तो तीन महीने में यह वेश्या के पीछे नहीं जाएगा, वेश्या इसके पीछे आएगी।
                        मुझे इस पर भरोसा है। यह बड़ा कीमती है।'वह भिक्षु चला भी गया।
                        वह तीन महीने वेश्या के घर रहा। बड़ी-बड़ी कहानियां चलीं, बड़ी खबरें आईं, अफवाहें आईं कि भ्रष्ट हो गया। वह तो बरबाद हो गया, बैठकर संगीत सुनता है। पता नहीं खाने-पीने का भी नियम रखा है कि नहीं ! वह भिक्षु भीतर तो जा नहीं सकते थे, लेकिन आसपास चक्कर जरूर लगाते रहते थे।
और कई तरह की खबरें लाते थे।
                          लेकिन बुद्ध सुनते रहे और उन्होंने कोई वक्तव्य न दिया।
                          तीन महीने बाद जब भिक्षु आया, तो वह वेश्या उसके पीछे आई।
                          और उस वेश्या ने कहा कि मेरे धन्यभाग कि आपने इस भिक्षु को मेरे घर रुकने की आज्ञा दी।
                          मैंने सब तरह की कोशिश की इसे भ्रष्ट करने की, क्योंकि वह मेरा अहंकार था।
                           जब वेश्या भ्रष्ट कर पाती है, तब जीत जाती है।
                          वह मेरा अहंकार था कि यह भिक्षु भ्रष्ट हो जाये l
                         लेकिन इसके सामने मैं हार गई। मेरा सौंदर्य व्यर्थ, मेरा शरीर व्यर्थ, मेरा संगीत व्यर्थ, मेरा नृत्य, इसे कुछ भी न लुभा पाया और तीन महीने में, मैं इसके लोभ में पड़ गई।
                         और मेरे मन में यह सवाल उठने लगा, क्या है इसके पास?
                         कौन-सी संपदा है, जिसके कारण मैं इसे कचरा मालूम पड़ती हूं? अब मैं भी उसी की खोज करना चाहती हूं l
                       जब तक वह संपदा मुझे न मिल जाए, तब तक मैं सब कुछ करने को राजी हूं, सब छोड़ने को राजी हूं।
                     अब जीने में कोई अर्थ नहीं, जब तक मैं इस अवस्था को न पा लूं, जिसमें यह भिक्षु है।
                     और वेश्या भिक्षुणी हो गयी l
          



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Thursday, 6 September 2018

गुरु के हृदय



_जब श्री रामकृष्ण परमहंस को केंसर हुआ था,तब उनको खासी बहूत आती थी।और वो कुछ खाना भी नही खा सकते थे।उस समय श्री विवेकानंद अपने गुरु की ये हालात से बहूत चिंतित थे।_
_एक दिन की बात है....._
ठाकुर: _"नरेंद्र,तुजे वो दिन याद है,जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था ? तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। परंतु अपनी माँ से जूठ कह देता था की तूने अपने मित्र के घर खा लिया है,ताकी तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दे। है न ?"_
_नरेन्द्र ने रोते-रोते हां में सर हिला दिया।_
ठाकुर फिर बोले,_"यहां मेरे पास मंदिर आता,तो तेरे चहरे पे खुशी का मुखोटा  पहन लेता। पर में भी तो कम नही। झट जान जाता की तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चोकडी मचा रहे है की तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है। और फिर तुजे अपने हाथो से लड्डू,पेडा मख्खन-मिश्री खिलाता था। है ना?"_
_नरेन्द्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई।_
_अब ठाकुर फिर मुश्कुराये और प्रश्न पूछा-_ _"कैसे जान लेता था में यह बात? कभी सोचा है तूने?"
_नरेन्द्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।_
ठाकुर:_"बता न,में तेरी आंतरिक स्थिति को कैसे जान लेता था ?"_
नरेन्द्र- _"क्योंकि आप अंतर्यामी माँ है,ठाकुर।"_
ठाकुर: _"अंतर्यामी,अंतर्यामी किसे कहते है?"_
नरेन्द्र _"जो सब के अंदर की जाने"_
ठाकुर: _"कोई अंदर की कब जान सकता है ?"_
नरेन्द्र- _"जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।"_
ठाकुर:_"याने में तेरे अंदर भी बैठा हूँ। हूँ ?"_
नरेन्द्र- _"जी बिल्कुल। आप मेरे ह्रदय में समाये हुए है।"_
ठाकुर: _"तेरे भीतर में समाकर में हर बात जान लेता हूँ। हर दुःख दर्द पहचान लेता हु। तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ तो क्या तेरी तृप्ति मुज तक नही पहुचती होगी ?"_
नरेन्द्र- _"तृप्ति ?"_
ठाकुर: _"हा तृप्ति!जब तू भोजन खाता है और तुजे तृप्ति होती है,क्या वो मुझे तृप्त नही करती होगी ? अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है, अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यो के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। में एक नहीं हजारो मुखो से खाता हूँ। तेरे,लाटू के,काली के,गिरीश के,सबके।_
_याद रखना,गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हे पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कही है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही,तब भी जिऊंगा,तेरे जरिए जिऊंगा। में तुझमे रहूँगा,तू मुझमे।"_
_दोस्तों आज नेट पर देखते-देखते यह बात पर मेरा ध्यान गया। मुझे यह संवाद बहुत ही भावुक कर गया। सोचा,आप सब भी गुरु-शिष्य का यह संवाद से लाभान्वित हो........गुरु अपने शिष्य के प्रति कितने भावुक कितने दयावान होते है।अपने शिष्य की,हर उल्जन को वह भली भांति जानते है।_
_शिष्य इस सब बातो से बे खबर होता है..वो अपनी उल्जने गुरु के आगे गाते रहता है....._
_गुरु से कोई बात छिप सकती है क्या ? गुरु आखिर भगवान् का स्वरूप ही तो है।_

डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी के एक जीवन प्रसंग

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उस समय किसी विकृत मानसिकता वालों ने एक सस्ते अख़बार में उनके विषय में कुछ का कुछ छपवाना शुरु कर दिया कि ‘वे ऐसे हैं, वैसे हैं….।’ जो कुछ भी कचरा उसके मस्तिष्क से निकलता, उसे कलम द्वारा अख़बार में छपवाता और यदि कोई अख़बार न भी लेना चाहे तो उसे जबरदस्ती पकड़ाता, मुफ्त में बँटवाता।


डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के किसी प्रशंसक ने उन्हें वह अख़बार दिखाया, राजेन्द्र प्रसाद ने उसे फाड़कर फेंक दिया। दूसरा कोई व्यक्ति भी वह अख़बार लेकर आया तो उन्होंने उसे भी कचरा पेटी में डाल दिया। वह निंदक कुप्रचार करता ही रहा। 


आखिर राजेन्द्र प्रसाद के कुछ मित्रों ने कहाः

“यह व्यक्ति आपके विरूद्ध इतना कुछ लिख रहा है और आप कुछ नहीं करते ! अब तो आप राष्ट्रपति हैं, आपके पास क्या नहीं है ? आप चाहें तो उसके विरुद्ध कोई भी कदम उठा सकते हैं। आप उसे कुछ कहें, कुछ तो समझायें। न समझे तो फटकारें, परंतु कुछ तो करें।”

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मुस्कराते हुए बोलेः “वह मेरी बराबरी का होता तो मैं उसे जवाब देता। जो विकृत मस्तिष्क वाले होते हैं, उनके शत्रुओं की कमी नहीं होती। कभी उसकी मति भी ऐसी हो जायेगी कि उसे दूसरा कोई शत्रु मिल जायेगा और वे आपस में ही लड़ मरेंगे। लोहे से लोहा कट जायेगा।”

उन लोगों ने फिर कहाः “परन्तु वह आपके लिए इतना सारा लिखता रहता है, आपको कुछ तो जवाब देना ही चाहिए।”


डॉ. राजेन्द्र प्रसादः “इसकी कोई जरूरत नहीं है।”

राजेन्द्र प्रसाद पर तो उस निंदक के कार्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु उनके परिचित और मित्र परेशान हो उठे। अतः पुनः बोलेः

“हम आपके पास आते जाते रहते हैं और आपकी बदनामी हो रही है तो उसका प्रभाव हमारे संबंधों पर भी पड़ रहा है। हमें भी लोग जैसा चाहे सुना देते हैं, अतः आपको कुछ तो करना ही चाहिए।”


तब राजेन्द्र प्रसाद ने एक दृष्टांत देते हुए कहाः “एक हाथी जा रहा था। उसके पीछे कुत्ते भौंकने लगे परंतु हाथी अपनी ही मस्ती में चलता रहा। हाथी हाथी से टक्कर ले तो अलग बात है। यदि हाथी कुत्तों को समझाने या चुप कराने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि वह कुत्तों के साथ अपनी तुलना करने लगा है और अपनी महिमा भूल गया है ! हाथी की अपनी महिमा है।”

कबीर जी ने कहा हैः

हाथी चलत है अपनी चाल में, 

कुतिया भूँके वा को भूँकन दे।

मन ! तू राम सुमिरकर, जग बकवा दे।।