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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उस समय किसी विकृत मानसिकता वालों ने एक सस्ते अख़बार में उनके विषय में कुछ का कुछ छपवाना शुरु कर दिया कि ‘वे ऐसे हैं, वैसे हैं….।’ जो कुछ भी कचरा उसके मस्तिष्क से निकलता, उसे कलम द्वारा अख़बार में छपवाता और यदि कोई अख़बार न भी लेना चाहे तो उसे जबरदस्ती पकड़ाता, मुफ्त में बँटवाता।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के किसी प्रशंसक ने उन्हें वह अख़बार दिखाया, राजेन्द्र प्रसाद ने उसे फाड़कर फेंक दिया। दूसरा कोई व्यक्ति भी वह अख़बार लेकर आया तो उन्होंने उसे भी कचरा पेटी में डाल दिया। वह निंदक कुप्रचार करता ही रहा।
आखिर राजेन्द्र प्रसाद के कुछ मित्रों ने कहाः
“यह व्यक्ति आपके विरूद्ध इतना कुछ लिख रहा है और आप कुछ नहीं करते ! अब तो आप राष्ट्रपति हैं, आपके पास क्या नहीं है ? आप चाहें तो उसके विरुद्ध कोई भी कदम उठा सकते हैं। आप उसे कुछ कहें, कुछ तो समझायें। न समझे तो फटकारें, परंतु कुछ तो करें।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मुस्कराते हुए बोलेः “वह मेरी बराबरी का होता तो मैं उसे जवाब देता। जो विकृत मस्तिष्क वाले होते हैं, उनके शत्रुओं की कमी नहीं होती। कभी उसकी मति भी ऐसी हो जायेगी कि उसे दूसरा कोई शत्रु मिल जायेगा और वे आपस में ही लड़ मरेंगे। लोहे से लोहा कट जायेगा।”
उन लोगों ने फिर कहाः “परन्तु वह आपके लिए इतना सारा लिखता रहता है, आपको कुछ तो जवाब देना ही चाहिए।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसादः “इसकी कोई जरूरत नहीं है।”
राजेन्द्र प्रसाद पर तो उस निंदक के कार्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु उनके परिचित और मित्र परेशान हो उठे। अतः पुनः बोलेः
“हम आपके पास आते जाते रहते हैं और आपकी बदनामी हो रही है तो उसका प्रभाव हमारे संबंधों पर भी पड़ रहा है। हमें भी लोग जैसा चाहे सुना देते हैं, अतः आपको कुछ तो करना ही चाहिए।”
तब राजेन्द्र प्रसाद ने एक दृष्टांत देते हुए कहाः “एक हाथी जा रहा था। उसके पीछे कुत्ते भौंकने लगे परंतु हाथी अपनी ही मस्ती में चलता रहा। हाथी हाथी से टक्कर ले तो अलग बात है। यदि हाथी कुत्तों को समझाने या चुप कराने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि वह कुत्तों के साथ अपनी तुलना करने लगा है और अपनी महिमा भूल गया है ! हाथी की अपनी महिमा है।”
कबीर जी ने कहा हैः
हाथी चलत है अपनी चाल में,
कुतिया भूँके वा को भूँकन दे।
मन ! तू राम सुमिरकर, जग बकवा दे।।