Thursday, 6 September 2018

गुरु के हृदय



_जब श्री रामकृष्ण परमहंस को केंसर हुआ था,तब उनको खासी बहूत आती थी।और वो कुछ खाना भी नही खा सकते थे।उस समय श्री विवेकानंद अपने गुरु की ये हालात से बहूत चिंतित थे।_
_एक दिन की बात है....._
ठाकुर: _"नरेंद्र,तुजे वो दिन याद है,जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था ? तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। परंतु अपनी माँ से जूठ कह देता था की तूने अपने मित्र के घर खा लिया है,ताकी तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दे। है न ?"_
_नरेन्द्र ने रोते-रोते हां में सर हिला दिया।_
ठाकुर फिर बोले,_"यहां मेरे पास मंदिर आता,तो तेरे चहरे पे खुशी का मुखोटा  पहन लेता। पर में भी तो कम नही। झट जान जाता की तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चोकडी मचा रहे है की तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है। और फिर तुजे अपने हाथो से लड्डू,पेडा मख्खन-मिश्री खिलाता था। है ना?"_
_नरेन्द्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई।_
_अब ठाकुर फिर मुश्कुराये और प्रश्न पूछा-_ _"कैसे जान लेता था में यह बात? कभी सोचा है तूने?"
_नरेन्द्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।_
ठाकुर:_"बता न,में तेरी आंतरिक स्थिति को कैसे जान लेता था ?"_
नरेन्द्र- _"क्योंकि आप अंतर्यामी माँ है,ठाकुर।"_
ठाकुर: _"अंतर्यामी,अंतर्यामी किसे कहते है?"_
नरेन्द्र _"जो सब के अंदर की जाने"_
ठाकुर: _"कोई अंदर की कब जान सकता है ?"_
नरेन्द्र- _"जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।"_
ठाकुर:_"याने में तेरे अंदर भी बैठा हूँ। हूँ ?"_
नरेन्द्र- _"जी बिल्कुल। आप मेरे ह्रदय में समाये हुए है।"_
ठाकुर: _"तेरे भीतर में समाकर में हर बात जान लेता हूँ। हर दुःख दर्द पहचान लेता हु। तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ तो क्या तेरी तृप्ति मुज तक नही पहुचती होगी ?"_
नरेन्द्र- _"तृप्ति ?"_
ठाकुर: _"हा तृप्ति!जब तू भोजन खाता है और तुजे तृप्ति होती है,क्या वो मुझे तृप्त नही करती होगी ? अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है, अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यो के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। में एक नहीं हजारो मुखो से खाता हूँ। तेरे,लाटू के,काली के,गिरीश के,सबके।_
_याद रखना,गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हे पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कही है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही,तब भी जिऊंगा,तेरे जरिए जिऊंगा। में तुझमे रहूँगा,तू मुझमे।"_
_दोस्तों आज नेट पर देखते-देखते यह बात पर मेरा ध्यान गया। मुझे यह संवाद बहुत ही भावुक कर गया। सोचा,आप सब भी गुरु-शिष्य का यह संवाद से लाभान्वित हो........गुरु अपने शिष्य के प्रति कितने भावुक कितने दयावान होते है।अपने शिष्य की,हर उल्जन को वह भली भांति जानते है।_
_शिष्य इस सब बातो से बे खबर होता है..वो अपनी उल्जने गुरु के आगे गाते रहता है....._
_गुरु से कोई बात छिप सकती है क्या ? गुरु आखिर भगवान् का स्वरूप ही तो है।_

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