Wednesday, 17 October 2018

बेटियों की अहमियत



       एक संत की कथा में एक बालिका खड़ी हो गई।
        चेहरे पर झलकता आक्रोश...


        संत ने पूछा - बोलो बेटी क्या बात है?


        बालिका ने कहा- महाराज हमारे समाज में लड़कों को हर प्रकार की आजादी होती है।
        वह कुछ भी करे, कहीं भी जाए उस पर कोई खास टोका टाकी नहीं होती।
        इसके विपरीत लड़कियों को बात बात पर टोका जाता है।
        यह मत करो, यहाँ मत जाओ, घर जल्दी आ जाओ आदि।


        संत मुस्कुराए और कहा...


         बेटी तुमने कभी लोहे की दुकान के बाहर पड़े लोहे के गार्डर देखे हैं?
        ये गार्डर सर्दी, गर्मी, बरसात, रात दिन इसी प्रकार पड़े रहते हैं।
         इसके बावजूद इनका कुछ नहीं बिगड़ता और इनकी कीमत पर भी कोई अन्तर नहीं पड़ता।
          लड़कों के लिए कुछ इसी प्रकार की सोच है समाज में।


         अब तुम चलो एक ज्वेलरी शॉप में।
         एक बड़ी तिजोरी, उसमें एक छोटी तिजोरी।
         उसमें रखी छोटी सुन्दर सी डिब्बी में रेशम पर नज़ाकत से रखा चमचमाता हीरा।
         क्योंकि जौहरी जानता है कि अगर हीरे में जरा भी खरोंच आ गई तो उसकी कोई कीमत नहीं रहेगी।


         समाज में बेटियों की अहमियत भी कुछ इसी प्रकार की है।
         पूरे घर को रोशन करती झिलमिलाते हीरे की तरह।
          जरा सी खरोंच से उसके और उसके परिवार के पास कुछ नहीं बचता।
          बस यही अन्तर है लड़कियों और लड़कों में।


         पूरी सभा में चुप्पी छा गई।
          उस बेटी के साथ पूरी सभा की आँखों में छाई नमी साफ-साफ बता रही थी लोहे और हीरे में फर्क।।।




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Wednesday, 10 October 2018

प्रेम के बदले प्रेम


- एक डलिया में संतरे बेचती बूढ़ी औरत से एक युवा अक्सर संतरेखरीदता ।

- अक्सर, खरीदे संतरों से एक संतरा निकाल उसकी एक फाँक चखता और कहता,
"ये कम मीठा लग रहा है, देखो !"

- बूढ़ी औरत संतरे को चखती और प्रतिवाद करती "ना बाबू मीठा तो है!"

- वो उस संतरे को वही छोड़,बाकी संतरे ले गर्दन झटकते आगे बढ़ जाता।

- युवा अक्सर अपनी पत्नी के साथ होता था, एक दिन पत्नी नें पूछा
"ये संतरे हमेशा मीठे ही होते हैं, पर यह
नौटंकी तुम हमेशा क्यों करते हो ?

"युवा ने पत्नी को एक मधुर मुस्कान के साथ बताया -

"वो बूढ़ी माँ संतरे बहुत मीठे बेचती है, पर खुद कभी नहीं खाती,
इस तरह मै उसे संतरा खिला देता हूँ ।

एक दिन, बूढ़ी माँ से, उसके पड़ोस में सब्जी बेचनें वाली औरत ने सवाल किया,

- ये झक्की लड़का संतरे लेते इतनी चख चख करता है,
पर संतरे तौलते हुए मै तेरे पलड़े को देखती हूँ,
तुम हमेशा उसकी चख चख में, उसे ज्यादा संतरे तौल देती है ।

बूढ़ी माँ नें साथ सब्जी बेचने वाली से कहा -
"उसकी चख चख संतरे के लिए नहीं, मुझे संतरा खिलानें को लेकर होती है,
वो समझता है में उसकी बात समझती नही,मै बस उसका प्रेम देखती हूँ,
पलड़ो पर संतरे अपनें आप बढ़ जाते हैं ।

तो कहना पड़ेगा -

मेरी हैसीयत से ज्यादा मेरी थाली मे तूने परोसा है.
तू लाख मुश्किलें भी दे दे मालिक, मुझे तुझपे भरोसा है.
एक बात तो पक्की है की...
छीन कर खानेवालों का कभी पेट नहीं भरता
और बाँट कर खानेवाला कभी भूखा नहीं मरता...!!!



"ऊँचा उठने के लिए पंखो की जरूरत तो पक्षीयो को पड़ती है..
इंसान तो जितना नीचे झुकता है,
वो उतना ही ऊपर उठता जाता है..!!



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Wednesday, 3 October 2018

सबसे ठोस क्या है?








सब से ज्यादा सुदृढ़ क्या है?

--- ज्यादा ठोस है संकल्प बल…!
दृढ निश्चय…. संकल्प बल सब से ठोस है….”
एक भाई विकलांग था…संकल्प बल मिला…विद्वान् हुआ…. महा-निदेशक बना…. फौज का निदेशक बना ..
ग्रंथो में भी संकल्प बल की बहोत महिमा गाई है…
लेकिन इस से भी ठोस है, जहाँ से संकल्प उठता है वो….. संकल्प बल से भी ज्यादा ठोस है वो “चिद-घन”!…..भगवान को “घन” कहा है …पथ्थर को तोड़नेवाला लोहा…लोहे को तपानेवाला अग्नि ..अग्नि में शीतलता देनेवाला जल ..और जल के मेघों को वायु उड़ा के ले जाएगा.. और वायु की गति को भी घुमा देगा ऐसा है मनुष्य का संकल्प बल…तो संकल्प बल सब से शक्तिशाली है…..
मैं इस बात को आगे ले चलता…..सब से ज्यादा ठोस है वो “चिद-घन विभु” ….संकल्प जहाँ से उठता है ..
वो आत्मा परमात्मा है “घन… चैत्यन्य..!”
संकल्प बल से महा निदेशक की कुर्सी मिली…कुर्सी चली गई… फिर भी जो नही गया….कुर्सी पे बैठनेवाला शरीर मर गया, फिर भी जो मरा नही वो है आत्मा ..!
महा शक्तिशाली!….
महा शाश्वत तत्व है !!
और उस आत्मा में प्रीति हो जाए, विश्रांति हो जाए…उस को “मैं” के रूप में स्वीकार कर लिया जाए ….
..अभी तो शरीर को “मैं”मानते…. वो तो छुट जाएगा …..शरीर मर जाएगा तो मरने के बाद भी नही मिटता वो कितना ठोस है!!
…. हजारो जनम से शरीर मिले..मिल मिल के मिट गए…. लेकिन आप का आत्मा कभी नही मिटा….
.. ‘ “मैं” हूँ की नही?’ ऐसा सवाल कभी नही उठता…. भगवान है की नही ये सवाल उठ सकता है …
“मैं” हूँ की नही ये सवाल नही उठेगा ..सब से ज्यादा जीवात्मा का वास्तविक “मैं” ठोस है…. जहाँ से संकल्प उठता है… संकल्प तो हो हो के मिट जाते….संकल्पों को सफलता विफलता मिल कर चली जाती…. फिर भी नही जाता इसी को उपनिषद बोलते

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते,

पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।
ॐ शांति: शांति: शांतिः

..वो अपने आप में पूर्ण है…. परमात्मा की तरह जीवात्मा.भी पूर्ण है ..पूर्ण से ही उत्पत्ति होती है |





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