एक लड़की ने ठान लिया कि मैं पहले आत्मविद्या पाऊँगी, जिससे सारे दुख सदा के लिए मिट जाएँ और परमात्मा का साक्षात्कार हो जाए। उसने सत्संग किया, अनुष्ठान किया और अंततः उसे साक्षात्कार प्राप्त हुआ।
वह बड़े घर की राजकन्या थी, उसका नाम था मदालसा। शादी हो गई तो उसने सोचा – “मेरे गर्भ से जो संतान जन्म लेगी, वे अज्ञानी कैसे रहें? संसार में लोग तो भगवान को बड़ा मानते हैं, परंतु मैं अपने बच्चों को आत्मा और परमात्मा का ज्ञान देकर उन्हें भगवद्रूप बनाऊँगी।”
मदालसा अपने शिशुओं को दूध पिलाते समय भी यही उपदेश देती – “तू शुद्ध है, तू अमर है, तू आत्मा है, तू चेतन है। मरने वाला शरीर तू नहीं है, बदलने वाला मन तू नहीं है, बदलने वाली बुद्धि तू नहीं है, तू अहंकार नहीं है। तू तो चैतन्य आत्मा है, अमर है। अपनी अमरता को पहचान।”
लोरी में भी वही बातें कहती और जब बच्चे समझदार होते, तो उन्हें आत्मज्ञान से पूर्ण कर देती। एक-एक करके चार पुत्र आत्मसाक्षात्कार कर महापुरुष बन गए।
जब पाँचवें पुत्र अलर्क का जन्म हुआ, तो मदालसा ने वही उपदेश देना चाहा, पर राजा ने कहा – *“यदि यह भी स्वतंत्र महापुरुष बन गया तो राजकाज कौन संभालेगा?”इसलिए अलर्क को पूरा आत्मज्ञान नहीं दिया गया, केवल थोड़ा-सा मार्गदर्शन दिया गया।
समय बीता, मदालसा वृद्ध हो गई। उसने सोचा – “अब यह शरीर कभी भी समाप्त हो सकता है और मेरे अलर्क पुत्र को आत्मज्ञान नहीं मिला है। जब यह बड़े संकट में होगा, तब इसे दुख सताएगा।” उसने एक चिट्ठी लिखकर ताबीज में डाल दी और अलर्क को देते हुए कहा – “बेटा! जब बहुत बड़ी मुसीबत आ जाए और कोई उपाय न सूझे, तब यह ताबीज खोलना।”
मां का देहांत हो गया। अलर्क राजा बन गया। संसार में कौन-सा ऐसा राज्य है जिसमें चिंता, दुख और टेंशन न हो? जिनके पास आत्मज्ञान नहीं है, उन्हें तो हर हाल में चिंता सताती है।
चारों भाइयों ने सोचा – “हमारी मां का उद्देश्य था कि सब पुत्र आत्मसाक्षात्कार करें, पर अलर्क रह गया। यह राजा है, इसलिए उपदेश मानने वाला नहीं है। बिना संकट के यह संत के पास नहीं जाएगा।”
इसलिए उन्होंने काशी नरेश से मिलकर नाटक रचा और फौज लेकर अलर्क के राज्य को चारों ओर से घेर लिया। अलर्क घबरा गया – *“मेरे अपने भाई और काशी नरेश मिलकर युद्ध करेंगे तो मैं क्या करूँगा?”* दुखी होकर उसे मां की दी हुई ताबीज याद आई। उसने खोलकर देखा, उसमें लिखा था –
“दुख पड़े तो संत शरण जाइए।”
अलर्क तुरंत संत गोरखनाथ के पास पहुँचा और बोला – *“महाराज! मैं बहुत दुखी हूँ। मेरे भाई और काशी नरेश युद्ध कर रहे हैं, मैं कुछ नहीं कर पा रहा।”
गुरु गोरखनाथ ने कहा – “ठहरो।”* पास रखे अंगारे में चिमटा डालकर जब वह तपकर लाल हो गया, तो उन्होंने कहा – “तेरे दिल में दुख है न? हाथ हटाओ, दुख को मारते हैं। बताओ, दुख कहाँ है? दुख पहले था क्या? नहीं। अब आया है तो क्यों आया है? तू दुखी है या दुख आया है? जब दुख नहीं था, तब भी तू था। और जब दुख चला जाएगा, तब भी तू रहेगा। तो दुख कहाँ है?”
अलर्क ने गहराई से सोचा। उसे समझ आया – "महाराज! दुख इसलिए है कि मैं शरीर और राज्य को ‘मैं’ मान बैठा हूँ। राज्य सदा रहने वाला नहीं, शरीर भी सदा रहने वाला नहीं। यही मूर्खता दुख का कारण है। वास्तव में मैं तो अमर आत्मा हूँ, परंतु अभी मैंने आत्मा को पहचाना नहीं।”
गुरु ने कहा – “अच्छा, जो ‘नहीं जानना’ है, उसको कौन जानता है? खोज।”
ध्यान गहरा हुआ, और अचानक उसे अनुभूति हुई – “नहीं जानने को जो जानता है, वही आत्मा-परमात्मा है।”
क्षणभर में अलर्क को परम शांति मिली। उसकी आँखों में दिव्य चमक आ गई, चेहरे पर आनंद खिल उठा। उसने गुरु को प्रणाम करते हुए कहा – “महाराज! अब सदा के लिए दुख मिट गए। अब तो मृत्यु भी मुझे दुखी नहीं कर सकती। आपकी कृपा से आत्मविद्या का प्रकाश हो गया।”
उसने भाइयों को संदेश भेजा – "मैंने अब तक राजकाज संभाला, अब तुम संभालो।" पर भाइयों ने गले लगाकर कहा – “हमें राज्य नहीं चाहिए। हम तो केवल चाहते थे कि तू आत्मराज प्राप्त करे, इसलिए यह नाटक किया था। अब तू जीवनमुक्त होकर राज्य कर, अब तेरे लिए यह बंधन नहीं रहा।”
उस दिन से अलर्क ने निर्लिप्त होकर राज्य किया। क्योंकि जिसने आत्मराज पा लिया, उसके लिए बाहरी राज कोई बंधन नहीं रहता। आसक्ति मिट जाती है, और जब आसक्ति मिट जाती है, तब चिंता और दुख भी मिट जाते हैं।
जो अपने को चाहिए – वह तो स्वयं हम हैं, अमर चैतन्य आत्मा। उसे मौत भी नहीं छीन सकती। और जो नश्वर है – शरीर, धन, राज्य – वह चाहे जितना संभालें, एक दिन छूट ही जाएगा। फिर उसमें आसक्ति क्यों?
धर्म के अनुसार व्यवहार करते हुए भी भीतर से निर्भय रहना चाहिए। क्योंकि सत्य तो यही है – आत्मा अमर है, चैतन्य है, और मृत्यु केवल नश्वर शरीर को छू सकती है, आत्मा को नहीं।
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